कान्ता पित्ती की कविताएँ सुनील दीपक, 26 सितम्बर 2010
कान्ता जी को पहली बार कब देखा था, यह तो मुझे याद नहीं, शायद 1960 में जब पापा हैदराबाद में थे और हम लोग गर्मियों की छुट्टियों में उनके पास गये थे. उस यात्रा में समाजवादी पार्टी के नेता डा. राम मनोहर लोहिया के सहयोगी और साहित्यिक पत्रिका "कल्पना" के सम्पादक बद्रीविशाल पित्ती से मिलना, उनके घर जाना और बहुत सी बातें याद हैं लेकिन तब क्या कान्ता जी वहाँ थीं, यह याद नहीं. कान्ता जी, बद्रीविशाल पित्ती की छोटी बहन थीं.
कान्ता जी कुछ याद सन 1971-72 के पास की है जब वह दिल्ली में पंचशील पार्क वाले घर में रहती थीं और कभी शाम को हमारे यहाँ आती थीं. उनका सुन्दर सौम्य कुछ उदास सा चेहरा और कलफ़ लगी सफ़ेद साड़ी याद है.
कान्ता जी का जन्म 1934 में हैदराबाद में हुआ था और कैसर से उनकी मृत्यु 1986 में हुई जब वह केवल 52 वर्ष की थीं. बचपन में सुना था कि उनकी शादी हुई थी लेकिन पाराम्परिक परिवार में वह नहीं जी पायीं और पति से अलग हो गयीं थीं. हमारे घर में उनके दो कविता संग्रह थे -
(1) "जो भी कुछ देखती हूँ" जो 1960 में बेगमबाज़ार हैदराबाद के नवहिन्द पब्लिकेशन्स द्वारा छापी गयी थी. यह किताब उन्होंने "बद्री भाई को" समर्पित की थी. इस किताब की आलोचना की थी प्रसिद्ध हिन्दी कवि मुक्तिबोध ने, जिन्होंने लिखा था कि "पीड़ा ही उनकी कविताओं का प्रमुख रंग है".
(2) "समयातीत", जो 1964 में बेगमबाज़ार हैदराबाद के नवहिन्द पब्लिकेशन्स द्वारा छापी गयी थी. यह किताब उन्होंने "बाबू जी को" समर्पित की थी. किताब के कवर पर लिखा है, "कवयत्री का पहला कविता संग्रह (जो भी कुछ देखती हूँ) सन् 1960 में प्रकाशित हुआ था. सन 1960 से 1963 की कविताएँ प्रस्तुत संग्रह में हैं. कान्ता जी ने इस संग्रह की कविताओं के बारे में कुछ कहना उचित नहीं समझा है. कविता और पाठक एवं आलोचक के बीच वक्तव्य का व्यवधान वे नहीं चाहती."
लूसी रोसेन्स्टाईन ने हिन्दी कवियों के अपने अध्ययन (Hindi - Nayi Kavita: An Anthology, by Lucy Rosenstein, Permanent Black, Delhi, India 2002) में कान्ता जी के बारे में लिखा था, "महादेवी वर्मा की तरह, उनकी गीतमय नायिका के भावात्मक परिपेक्ष्य में विरह की आग में जलती स्त्री है, यानि विरहणी नायिका है जिसके गुण है पीड़ा, अकेलापन, अपूर्ण इच्छाएँ, लेकिन उसमें आत्म दया नहीं है."
कान्ता जी के इन दो कविता संग्रहों से मेरी कुछ मन पसंद कविताएँ प्रस्तुत है -
"जो भी कुछ देखती हूँ" से
मैं नहीं तुम
लोग चौंकते हैं
जब मैं हँसती हूँ
और मेरी आँखों में
उतर आता है
सतरंगा अक्स -
तुम्हारा.
लोग भाँपते हैं
जब अधरों के कोर पर थिरकती है
मेरी भावना
और नदी के जल में
मैं नहीं,
तुम नज़र आते हो.
***
समर्पण की शाम
दूर, दूर, दूर
उधर पृथ्वी को छूता हुआ बादल
डूबता हुआ सूरज
और नदी
उदास
और नीले नीले, एकाकी पर्वत,
सब -
मेरी आँखों में नमी बन
उतर आया.
मुझे लगा,
मेरी पीड़ा समर्पित हुई.
***
आज नहीं है वक्त
नहीं, आज नहीं है वक्त :
गँदले पानी के नीचे तैरती मछलियों को
सीपियाँ निगलते देख
जगी अनुभूति सुनाने का,
या उन आँसुओं को
जिनने भीतर भीतर शब्दों को जन्म दिया
और उच्चारित हो कर शब्द
पत्थर में बदल गये -
उनकी वेदनाओं का भार
मित्रों के कंधों पर रख देने का.
आज मुझे केवल
गुँजा गुँजा देनी है हँसी
कभी कभी ही जो
गुलमोहर के पत्तों बीच छनती धूप सी
मँडेरों को छूती है,
बच्चों के चेहरों पर
नयी नयी मुसकाहट लाती है.
***
धुँआ
आज जब
अँधेरे के वक्ष पर माथा टेक रो चुकी हूँ,
सहज हूँ,
समझ पा रही हूँ
कि वे
शब्द केवल शब्द - थे
जो मैंने अब तक उचारे.
इसलिए जब भी कुछ उनसे जन्मा
तो वह मात्र धुँआ ही रहा : दुराग्रही -
फैल कर
अग्नि के मरण की कथा
सबको सुनाता रहा!
***
शीतदाह
जब जब भी कभी, अकारण,
मन बेचैन, उदास हो गया है
धुँए भरी शाम सा
और आँखों में जलन हुई है -
मुझे तब तब का वह आँसू
सार्थक लगा है.
जब जब कभी
किसी गहन दर्द की चुभन ने
मुझको अवाक् किया है
अँधेरी रात सा
और सन्नाटे मुझमें गूँजे हैं -
हर ढुलक गयी बूँद मुझे
शीतल लगी है.
***
चाहनाएँ
किसी ने देखने चाहे आँसू
आँखों में,
और अनत करुणा झलक गयी.
किसी ने सुननी चाही आह
होठों से,
और हँसी के पारिजात झर गये.
किसी ने चाहा,
गीत मेरे सो जाएँ
तो वे और गूँजे, गूँजने गूँजने लगे -
बागों में - पेड़ों पर,
समुद्र की लहरों
और किनारे पर उड़ती रेत में.
***
"समयातीत" से
1
पैरों के नीचे, मृत्यु को दबोचती
चुपचाप चल रही हूँ.
कभी कभी, बस,
सुख को सहने के प्रयत्न में
टपक जाता है
एक बूँद.
(1961)
2
ज़रा सा छू जाने पर जिनके
आ जाती थी गरमाई,
और तुमको छू कर भी आज जो
सर्द हैं :
क्या ये मेरे ही हाथ हैं?
आहट भर से जिनकी
महमहाती थी ज़िन्दगी
अनगिनती ज़िन्दगियों में,
तुम्हारी लीक पर चल कर भी आज जो
अनचले हैं :
क्या ये मेरे ही पाँव हैं?
पा हँसती हुई एक झलक जिसकी
फूटती थी कविता झरनों के वेग,
आज तुमसे ले कर भी प्राण जो
निष्प्राण हैं :
यह क्या मेरी ही
साँस लेती हुई
मात्र देह है?
(1960)
3
लाल हो जाता है चेहरा.
लोग समझते हैं
आग है,
भीतर
एक जीवंत आग है!
पर आँख से बहता हुआ धुँआ
कोई नहीं, कोई नहीं,
सिर्फ़
मेरी ही आँखें देखती हैं.
(1960)
4
मैं नहीं
चलते हैं सिर्फ़ पेड़,
लंबे लंबे पेड़ :
पीपल, नीम, बबूल के
संग संग धूप के!
मेरी तो लेटी है छाया
ऊपर चलती चीलों से बेखबर
उन बिना पत्तों वाली
दस पाँच टहनियों के नीचे!
(1960)