हरजिंदर सिंह लाल्टू से बातचीतकल्पना पर हिंदी लेखक
सुनील दीपक (27 अप्रैल 2008)
जनवरी 2008 में हैदराबाद में लाल्टू से मुलाकात हुई. उस बातचीत के कुछ अंश जो मैंने रिकार्ड किये थे, वह प्रस्तुत हैं.
मैं कविता क्यों लिखता हूँ?
बहुत पहले दैनिक भास्कर का एक चंडीगढ़ संस्करण होता था; वहाँ हमारे एक मित्र थे अरुण आदित्य. उन्होंने एक विषेशांक निकाला था कि हम लोग कविता क्यों लिखते हैं. बहुत से लोगों से उन्होंने यह प्रश्न पूछा था. मैंने इस बात पर सोचा तो मुझे लगा कि हम कविताएँ इस लिए लिखते हैं क्योंकि हम जीवन से प्यार करते हैं, हम प्रकृति से प्यार करते हैं, हम आदमी से प्यार करते हैं और प्यार ही हमारे लिए विद्रोह का एक स्वरूप है. मुझे लगता है कि आधुनिकता के जिस संकट में हम लोग फँसे हुए हैं जहाँ जीवन कहीं कई तहों में, कई सतहों में, अनगिनत संकटों में उलझा हुआ है, ऐसे माहौल में प्यार ही ऐसी चीज़ है जो सबसे ज़्यादा संकट में है. किसी तरह, जो दूसरों के प्रति हमारे अंदर जो प्यार की भावना है, उसको अभिव्यक्त कर पायें यह हमारी कविताओं में कोशिश होती है. जब हम किसी राजनीतिक विषय पर भी लिखते हैं, मूलतः हमारे अंदर एक ऐसा शख्स चीख रहा है, जिसे लगातार प्यार की ज़रुरत है, जो दूसरों से प्यार बाँटना चाहता है, और एक बेहतर संसार, एक बेहतर जीवन अपने लिए और दूसरों के लिए बनाना चाहता है. मुझे लगता है कि कविता में हमारी यही कोशिश होती है, चाहे अनचाहे जैसे भी हो. ऐसा नहीं कि हम कुछ जान कर लिखते हैं, हम तो जैसा माहौल है वैसा लिखते हैं. चाहे वह निजी माहौल हो या सामूहिक माहौल, जैसी मन में भावनाएँ होती हैं, जब कुछ लिखने का मन होता है, वही लिखते हैं.
जीवन और कविता का सम्बंध
जब हम बच्चे होते थे तो सबसे जटिल बात जो लगती थी वह थी इंसान अपने आप में वो होता है, जो वो नहीं होता है, यानि कि बाकी सब कुछ जो दुनिया में है, जो उस पर प्रभाव पड़ रहा है, वह वही होता है. उसका अपना अस्तित्व शायद कुछ नहीं होता.
पर धीरे धीरे जैसे जैसे चीज़ें समझने में सफलता मिली या चीज़ों के मतलब गहराई से समझ पाये हैं तो ऐसा लगने लगा है कि इंसान जो होता है वह लगातार एक जद्दोजहद में होता है, अपने आप को ढूँढने की जद्दोजहद में. अपने इर्द गिर्द जो कुछ है, चाहे नैसर्गिक सम्बंध में कहें या राजनीतिक सामाजिक सम्बंध में, उन सभी चीज़ों के साथ अपना एक सम्बंध बनाने की कोशिश में लगा रहता है. तो कविताओं में भी वो बातें आती हैं. कभी मैंने यह भी लिखा है कि एक वैज्ञानिक खोज है सब लोगों की. एक इंसान जन्म लेते ही एक वैज्ञानिक तलाश में निकल पड़ता है, चीज़ों को समझने और उनको अमूर्त ढाँचों में बदलने की प्रवृति में लगा रहता है. हर चीज़ को भाषा या अमूर्त ढाँचों में डाल कर देखने की कोशिश में लगा रहता है. तस्वीरों के ज़रिये, शब्दों के ज़रिये. कविता में भी यही कोशिश होती है एक भावनात्माक प्रक्रिया द्वारा. जो हमारे सम्बंध है, जो हमारे आसपास का है उसके बीच में जो सम्बंध हैं, जो हमारे बीच में सम्बंध हैं उन्हें समझने की कोशिश. हमारे आसपास में इंसान भी हैं, इंसान द्वारा बनाये अमूर्त ढाँचें भी हैं, प्रकृति के ढाँचें भी हैं, इंसान उनको पहचानने की कोशिश में लगा रहता है जिसे मोडल बिल्डिंग भी कहते हैं, वही कोशिश कविता में भी होती है.
शायद उसे खुद कह समझ पाना आसान नहीं, उसे दूसरे लोग ही जान समझ सकते हैं कि एक आदमी क्यों लिख रहा है.
रूप और प्रतिबद्धता की बहस
मुझे अक्सर लगता है कि हिंदी में जो रूप और प्रतिबद्धता की बहस है वह बिल्कुल निरर्थक है, क्यों कि पूरी तरह से रूप को समर्पित होना या पूरी तरह से सामाजिक प्रतिबद्धता के साथ लिखना, दोनों में ही क्रियेटिव राईटिंग नहीं है. उसमें काव्यात्मकता नहीं होती. कोई भी अच्छा कवि जो कुछ लिख रहा है, उसमें उसकी राजनीतिक पहचान भी है, और साथ ही रूप के बारे में समझ है, उसकी जो परिपक्वता है, वह भी है.
अगर हम लिखने वाले शख्स को समझ सकें, तो उसकी रचनाओं को बेहतर समझ सकते हैं. पर इसके अलावा को परम्परा है, या जो धाराएँ हैं, जो विचार हैं, इनको समझ कर जो व्यक्ति लिख रहा होता है तो वह समझ उसकी रचनाओं में आती है. यह तो आलोचकों का काम है कि वे लिखे हुए की चीर फ़ाड़ करें और बताएँ. जो लिख रहा होता है, वह तो सिर्फ लिखता है.
मेरी कहानियों का संसार
कहानियों के बारे में मैंने जल्दबाज़ी से काम लिया है. मेरी यह कोशिश रही है कि हिंदी में जो तमाम अन्य लोग लिख रहे हैं उनसे कुछ अलग लिखूँ. मैं छोटी कहानियाँ लिखता हूँ. मेरी मूल कोशिश यह है कि कहानी में कहानी के साथ ही फार्म को ले कर कुछ नया गढ़ने की कोशिश है. मेरी हर कहानी में एक इमानदार कहानीकार को पेश करने की कोशिश है. अगर आप मेरी काहानियों को पढ़ें तो आप को लगेगा कि मैं अपनी आत्मकथाएँ लिख रहा हूँ. अक्सर लोग मेरे कहानी संग्रह घुघनी (अभिषेक प्रकाशन, चण्डीगढ़, 1996) की जो पहली कहानी है उसे पढ़ कर कहते हैं कि मुझे पता नहीं था कि तुम्हारी माँ बचपन में गुज़र गयी थी. हालाँकि मैं हँस कर उनसे कहता हूँ कि मेरी माँ तो अभी ज़िंदा हैं, पर एक तरह से मुझे खुशी भी होती है कि लोगों को यह लगता है कि मैं अपने आप को कहानी में पेश कर रहा हूँ.
मैं एक मध्यवर्गीय, कम से कम सीमित रूप में, एक बुद्धिजीवी हूँ और मेरे आज के इस आधुनिक जगत में, आधुनिक मूल्यों के साथ जीने का मेरा संकटपूर्ण जीवन है, और मेरे अपने विरोधाभास हैं. मैं समझता हूँ कि मैं अपनी कहानियों के माध्यम से ऐसे ही चरित्रों को सामने रखता हूँ. इसका यह मतलब नहीं कि मैं इन मूल्यों से कोई संघर्ष नहीं कर रहा हूँ या मैंने इन मूल्यों से समझौता कर चुका हूँ और जिसे कहते हैं कि बिना किसी द्वंद के सकून भरी कोई ज़िंदगी जी रहा हूँ, ऐसा नहीं है. पर मैं समझता हूँ कि इन विरोधाभासों को अपनी कहानी में रख पाना मेरी कोशिश है.
आप मेरी कहानियों में देखेंगे कि उनमें एक सामाजिक नेरेटिव है, उनका एक पोलिटिकल कोंटेक्स्ट है क्योंकि मैं खुद एक राजनैतिक जीव हूँ और मेरी एक राजनैतिक सोच है. मेरी कहानियों में मेरी यह सोच आप को दिखेगी. पर साथ ही विरोधाभासों से लड़ने की एक कोशिश भी है. मैं समझता हूँ कि मेरे जैसे लोग जो मेरे समय को जी रहे हैं, वह मेरी कहानियों में इन बातों को ढूँढ़ सकते हैं.
रचनाओं में लेखक की आपबीती
हम वास्तविक अनुभवों को केंद्र में रख कर ही उनके इर्द गिर्द कहानी का ताना बाना बुनते हैं. अगर हम कुछ बिल्कुल ही काल्पनिक रूप में गढ़ें तो शायद उसमें इमानदारी नहीं होगी और उसकी वजह से वह कभी कोई महान रचना नहीं बन सकती. यहाँ तक कि अगर आप हैरी पाटर या उस तरह की साईंस फिक्शन या फैंटेसी की रचनाओं को लें और उसकी आलोचनाओं को पढ़ें तो देखेंगे कि इन रचनाओं में भी समय और संकटों का पूरा तानाबाना है. तो ऐसा नहीं कि अपने समय से बिल्कुल अलग, पूरी मन गढ़ंत कोई फैंटेसी है, उसमें भी बहुत गहरी सच्चाइयाँ हैं.
अगर आप इन फैंटेसी रचनाओं को डेरिडा की डीकंस्ट्रक्शन सिंद्धांत को मद्देनज़र रखते हुए पढ़ते हैं तो पाते हें यह चीज़ें उतनी आसान नहीं. कोई किशोर इन्हें पढ़ रहा हो तो उसके लिए यह केवल फैंटेसी की दुनिया हो सकती है, पर दरअसल इन रचनाओं में हम जटिल सामाजिक, राजनैतिक सच्चाइयाँ भी पाते हैं. तो हाँ मेरी नज़र में हमारे कहानी उपन्यासों में अपनी आपबीती तो अवश्य होती है.
लेखन पर प्रभाव
मैं बचपन से कलकत्ता में पला बड़ा हुआ हूँ, बँगला में बहुत पढ़ा है. पिता जी पंजाबी थे तो पंजाबी भाषा में भी बहुत पढ़ा है. इसके अलावा हमेशा अँग्रेज़ी बोलता और पढ़ता रहा तो विश्व साहित्य का भी बहुत प्रभाव है.
मुझे लगता है कि हिंदी में अन्य लोग जो लिख रहे हैं, मेरे लिखने में उनसे कुछ अलग बात है और मैंने अपनी अलग पहचान बनाने की कोशिश की है. औरों का प्रभाव तो है ही पर वह समय समय पर बदलता रहा है. जैसे जब मैं अमरीका में था तो ब्लेक अमरीकी पोयट्री से बहुत प्रभावित था. आज तक मेरे प्रिय कवियो में निक्की ज्योवानी और दूसरे कुछ ब्लेक पोयटस् हैं. फ़िक्शन लिखने वालों में एलिस वाकर का प्रभाव पड़ा, उनकी महान कृतियों में 'मिस' मैगज़ीन में छपी कहानियों के संग्रह "फाईन लाईनस" में उनकी एक कहानी थी "एडवाँसिंग लूना और आईडा बी. वेल्स"; अगर मैं तमाम कहानियों को याद करूँ तो कहूँगा कि वह कहानी है जिसने मुझे सबसे अधिक प्रभावित किया है. उन्होंने बाद में इसी कहानी पर एक उपन्यास भी लिखा था जो कहानी का वृहद रूप था. इसी तरह टोनी मोरिसन की रचनाएँ हैं और लैंग्स्टन ह्यूज़ की पोयट्री.
बाद में वापस आ कर मैंने बँगला में रवींद्रनाथ को दोबारा पढ़ा. जब हम बच्चे थे तो हर बात उतनी गहराई से समझ नहीं आती थी. सत्यजीत राय की फ़िल्मों के ज़रिये भी मैंने उपन्यासकार और कहानीकार रवींद्रनाथ को ढूँढ़ा है. उनके "घरे बाईरे" से सत्यजित राय की फ़िल्म देख कर जितना प्रभावित हुआ, कालिज के दिनों में जब यह उपन्यास पढ़ा था तब इतना प्रभावित नहीं हुआ था. कालिज में थे तो गोर्की की "माँ" पढ़ी थी उससे बहुत प्रभावित हुआ था. बाद में दूसरे रूसी उपन्यासकारों में से सोल्ज़ेनित्ज़िन के "अगस्त 1914" ने बहुत प्रभावित किया था. बाद में ऐसे लोग भी पढ़े जिनका उतना अधिक नाम नहीं लिया जाता जैसे फाज़िल इस्कांदेर जो अबखाज़िया के थे या रसूल हमजातोव "मेरा दागिस्तान" अब सब लोग जानते हैं.
अमरीकी लेखकों में से जाह्न अपडाईक मेरे फेवेरेट लेखक हैं, उनके उपन्यासों में मुझे लगता है कि अपने समय का इतना अच्छा सामाजिक चित्रण जो उनका है वैसा शायद मैंने कहीं नहीं देखा, इतना खुला और बेबाक लिखना. हिंदुस्तानी लेखकों में से मुझे बहुत प्रभावित किया समरेश बसु ने, खास कर उनकी जो काल कूट नाम से लिखी रचनाएँ हैं. और हिंदी में पुराने लोग तो हैं ही, मतलब प्रेमचंद से ले कर. अज्ञेय के उपन्यासों ने मुझे बहुत प्रभावित किया.
इन दिनों उपन्यास कुछ कम पढ़ता हूँ जैसे सुरेंद्र वर्मा का कुछ पढ़ा है.
श्रीलाल शुक्ल का राग दरबारी जैसी किताबें पढ़ीं हैं जिनका मुझ पर प्रभाव है. कई भाषाओं में पढ़ा है. तमिल के लेखकों के अनुवाद पढ़े हैं, मलयालम या दूसरी भाषाओं के लेखकों को थोड़ा पढ़ा है. हाँ दूसरे मुल्कों से, तीसरी दुनिया के देशों के लेखकों को जितना पढ़ना चाहिये था उतना नहीं पढ़ा. जैसे अफ्रीका के लिखने वाले, उन्हे कम पढ़ा है. उनमें राजनीतिक और नान फिक्शन अधिक पढ़ा है. चीनी और जापानी नाम याद नहीं आते. इतालवी लेखकों में उमबेर्तो इको का नाम याद आता है पर जब से वह सेमियोटिकस् पर लिखने लगे हैं उन्हें पढ़ना कठिन है.