ओमप्रकाश दीपक का लेखन कल्पना का हिन्दी लेखन जगत

बेला (एक अधूरी कहानी)

ओमप्रकाश दीपक (?)

लोहे के छोटे फाटक को पकड़े हुए मैं कितनी देर खड़ा रहा था मुझे याद नहीं. सामने छोटे से बरामदे में लालटेन की शकल की बत्ती के हलके सलेटी रंग के शीशे से छन कर, बहुत धुँधली सी रोशनी इस तरह फैली थी कि अँधेरे और उजाले का कोई अलगाव नहीं था. दाहिनी तरफ़ पीछे हलकी हलकी रोशनी की झलक दिख रही थी, उधर बेला के सोने का कमरा था. उसी तरफ़ से परिजात की हलकी हलकी गंध आ रही थी. छोटे से बँगले की हर चीज़ में बेला का हाथ था. एक तरह से वह बँगला बेला के व्यक्तित्व की ही एक अभिव्यक्ती थी. बेला को न तेज रोशनी पसंद थी न अँधेरा. उसे निर्गंध फ़ूल पसंद नहीं थे, चाहे जितने सुंदर हों, और तेज गंध से उसके सिर में दर्द होने लगता था.

महुए की गन्ध लेकिन उसे जाने क्यों बहुत भाई थी. वह पहला सफ़र था जो हमने अकेले किया था, होली के कुछ पहले, और हम सारनाथ जा रहे थे. इलाहाबाद और बनारस के बीच कहीं गाड़ी रुकी थी, शायद सिगनल नहीं मिला था. अँधेरा हो गया था, कुछ दिख नहीं रहा था, लेकिन पटरी के साथ ही शायद महुए का बाग था. थोड़ी देर के लिए डिब्बे में महुए की नशीली गन्ध छा गयी थी. गाड़ी चल पड़ी थी और डिब्बे में फ़िर धुएँ और धूल की वह मिली जुली गंध छा गयी थी जो तेज़ गाड़ियों की ख़ासियत होती है, जिससे रेल का कोई सफ़र आरामदेह नहीं होता. तब बेला ने सिर उठा कर पूछा था, "चिन्नी यह किस फ़ूल की महक थी?"

बहुत पहले एक दिन उसने मुझसे कहा था, "नारायण, तुम कुछ वैसे ही हो जैसा चन्दन होता है. देखने में महज काठ. लेकिन तुम जहाँ जाते हो एक हलकी सी ठंडी ठंडी गंध अपने साथ ले जाते हो, जो तुम्हारे चले जाने के बाद भी कुछ देर बनी रहती है. अक्सर तो आस पास के लोगों को पता ही नहीं चलता कि महक और ठडंक कहाँ से आ रही है."

कितनी देर से मैं यहाँ कोने में खिड़की पर कोहनी टिकाये, हाथ में अनानास के रस का गिलास लिए खड़ा था. वहाँ सभी लोग जानते थे कि मैं शराब पीता हूँ. नहीं पी रहा तो उसका मतलब है कि मैं किसी बात पर खीझा, परेशान या नाराज हूँ. दोस्तों के बीच कभी कभी पी लेता था जब तबियत हलकी और खुश रहती. जब अपनी तबियत पर काबू रखना चाहता तो शराब को हाथ नहीं लगाता था. उस दिन मैं खीझा, परेशान या नाराज नहीं था. लेकिन रामन बेला को पहली बार तमाम दोस्तों के बीच लाया था. घर से चला था तो मन में कुछ हलका सा डर था. इस तरह की पार्टी के माहौल में वह किसी तरह की घबराहट तो नहीं महसूस करेगी. बेला तब सिर्फ इतना ही जानती थी कि मैं रामन का बहुत गहरा दोस्त हूँ. लेकिन मैं उसके बारे में काफ़ी कुछ जानता था. और इसलिए एक बार सभी से सलाम दुआ के बाद मैं खिड़की पर कोहनी टेक कर खड़ा हो गया था. मेरी घबराहट दूर हो गयी थी, लेकिन गिलास पर मेरी उँगलियाँ कस गयीं थीं. और मेरा जिस्म जलने लगा था. बेला मिनटों में ही महमानों में घुल मिल गयी थी. ऐसे कि उसकी तरफ़ खास तौर पर किसी का ध्यान नहीं था, रामन का भी नहीं. लेकिन मैं उसे ही देख रहा था, पहले कुछ तटस्थ हो कर, फ़िर जैसे अनजाने में मेरा दृष्टि क्षेत्र सिमटता चला गया था. जब अचानक वह मेरे पास आ गयी थी, उसके काफ़ी पहले से मुझे और कुछ भी दिख नहीं रहा था. कम से कम व्यक्ति के रुप में वह मेरे लिए कमरे में अकेली थी. और सब लोग जैसे साये थे, या दीवारें खिड़कियाँ, या मेज़ कुर्सियाँ. उसे देखते देखते पहले मुझे सुर सुंदरियों और अप्सराओं की असंख्य भंगिमाओं वाली वे तमाम मूर्तियाँ याद आईं जिन्हें शाम के धुँधलके में देखने पर अक्सर लगा था जैसे अभी इनमें से कोई बोल पड़ेगी, आओ, मेरे पास आओ न. फ़िर वे सभी धीरे धीरे बोलने लगतीं और उन अमर यौवनाओं के सामने खड़ा नश्वर देह पुरुष उन्हें देखता रहता, और रात आ कर अपने खेल रचाने लगती. रात तो खुद भी एक अप्सरा है न. कितने और कैसे कैसे खेल रचाती है!

फ़िर लगा था कि रात के खेल से निकल कर कोई सुर सुंदरी ही चली आई है. ज़रा सी भौंहें तिरछी होतीं, ज़रा सा पुतलियाँ घूमतीं, ज़रा से होंठ हिलते, ज़रा सा सिर उठता, ज़रा सी गर्दन घूमती, कमर झुकती, पैर बढ़ते, पीठ तिरछी होती, तो हर बार लगता एक नयी औरत देख रहा हूँ. नहीं औरत नहीं, लेकिन एक नया रुप देख रहा हूँ. और जाने कब मेरे अंदर कोई चिंगारी जल उठी थी, कमरे के और सब लोग मेरे लिए अपदार्थ हो गये थे, और दुनिया में केवल एक ही चीज़ रह गयी थी, कि उसे पाऊँ, उसे बाहों मे ले कर उसके ओंठों को चूमूं कि उसके अंदर भी वैसी ही आग जल उठे.

थरथराती हुई उँगलियों में कसा हुआ गिलास काँपने लगा तो मैंने उसे खिड़की पर रख दिया, और तभी वह चल कर मेरे सामने आ कर खड़ी हो गयी. इतनी देर तक में उसे दूर से एकटक देखता रहा था कि वह अचानक सामने खड़ी हो गयी तो कुछ पल मुझे उसका चेहरा साफ़ नहीं दिखाई दिया. फ़िर मैंने देखा कि वह धीरे धीरे मुस्कुरा रही है. पहली बार मैंने देखा कि एक हाथ में कड़ा, और गले में एक लाकेट के अलावा उसके जिस्म पर कोई गहना नहीं है. आँखों में सुरमे की लकीर और ओठों पर हलकी सी लाली के सिवाय उसने कोई सिंगार भी नहीं किया था, फ़िर भी वह कमरे की सबसे सजी सँवरी औरत क्यों लग रही थी? मुझे लगा उसकी मुस्कान में कँहीं कुछ हलकी सी शरारत भी है, गो उसके मेरे सामने आ कर मुस्कुराने से ही मेरे अंदर का तनाव घटने लगा था. "तुम अकेले ही खड़े हो?"

"नहीं, अकेला तो नहीं हूँ," मेरी मुस्कान में भी शरारत थी. उसके चेहरे पर मुस्कान कुछ और खिली. अब उसमें शरारत नहीं थी. और तभी उसने अपनी बड़ी बड़ी पलके उठा कर मेरी आँखों में झाँका था, और धीरे से बोली थी, "तुम जानते हो नारायण, तुम कुछ वैसे ही हो जैसे चंदन होता है." एक बार मैंने सोचा था - तुम्हें क्या पता मेरे अंदर कैसी आग जल रही है. फ़िर मैंने उसका चेहरा देखा और जान गया कि उसे पता था. वह अब मुस्करा नहीं रही थी. और उसके चेहरे पर जो ममता थी उसमें कोई रिश्ता नहीं था, प्यार का भी नहीं, सिर्फ़ मेरे सारे व्यक्तित्व को समेटता हुआ एक गहरा आपनापन था. और उसी अपनाये से उसकी आँखें कह रहीं थीं, मैं सब जानती हूँ. अचानक मुझे एहसास हुआ था कि यह औरत दूर से ही मुझे देख कर, शायद बिना देखे भी, मुझे अंदर बाहर मेरे अंतरतम तक मुझे देख सकती है, छू सकती है.

मैं मुस्कुराया, बोला, (गो मैं जानता था कि ज़रा सी भी हरकत से वह जादू टूट जायेगा जो महज़ उसके एक बार मेरी आँखों में झाँकने से हमें बाँध गया था), "तुम अगर मेहमानों की तारीफ़ में इसी तरह की बात करती रही हो, ज़रा सँभल कर रहना, मर्द सब तुम्हारे दीवाने हो जायेंगे और उनकी बीबियाँ तुम्हारी जान की दुश्मन." बोलने के पहले मुझे डर लगा था कि जादू टूट जायेगा, और बोलते हुए लगा था कि में कैसी फूहड़, अश्लील जैसी बात कह रहा हूँ. लेकिन वह मुझे देखते हुए सिर्फ़ धीरे से हँसी थी, जैसे मेरे मन की हर उलझन को पढ़ रही हो. हँसी भी तो जैसे कह उठी थी - तुम मर्द लोग अपनी सारी उमरें एक साथ ही जीते हो, बच्चे भी किशोर भी, जवान भी, अधेड़ और बूढ़े भी. अपरिवर्तनीय अतीत और अज्ञात भविष्य, सब साथ लिए चलते हो. लगा था उसकी हँसी से जादू टूटने नहीं पाया, सिर्फ़ पिघल कर फ़ैल गया.

उसके हाथ में शेरी की प्याली थी, यह मैंने तब देखा जब उसने प्याली खिड़की पर मेरे गिलास के साथ रख दी, "चलो बाहर घास पर बैंठें." बाहर चाँदनी नहीं थी, कुछ दूर पर लगी बत्ती की ही रोशनी थी. लान के किनारे किनारे बेला की झाड़ियाँ थीं, एक पूरी लम्बी कतार. वह झाड़ियों के साथ ही बैठ गयी, कुछ उनके साये के हलके अँधेरे में, कुछ बत्ती के हलके उजाले में. मैं उसके पास ही बैठ गया, फ़िर बाँह सिर के नीचे रख कर उसकी तरफ मुँह करके मैंने पाँव फ़ैला लिए. उसने गर्दन घुमा कर धीरे से चारों ओर देखा. बाहर और कोई नहीं था. कमरे से चुहल और हँसी की आवाज़ें आ रही थीं. अभी किसी को बाहर आने का ख़याल नहीं आयेगा, मैंने सोचा. वह सिर उठा कर उसी तरह गर्दन घुमाते हुए आसमान को एक सिरे से दूसरे सिरे तक देख रही थी. आकाश गंगा की दूधिया धूल गाँव के किसी टेढ़े मेढ़े कच्चे रास्ते की तरह फैली हुई थी.

"क्या देख रही हो? कि तुम्हारा सितारा कौन सा है?"

"उँ हूँ", उसने सिर नीचे कर लिया. "वह जानने की इच्छा मेरे मन में कभी नहीं उठती. होगा तो सितारों की इस खूबसूरत भीड़ में वह भी कहीं होगा. मुझे खुले, अँधेरे आकाश में आकाशगंगा का यह फैलाव बहुत सुंदर लगता है. तुम क्या कभी रात को आकाश का रूप देखते हो?"

मैंने बाँह सिर के नीचे से हटा ली. एक भरी नज़र आकाश को देख कर बोला, "हाँ! कभी कभी देखता हूँ, किसी तस्वीर की तरह. चाँद और बादल उसका रंगरुप बदलते रहते हैं. कभी बहुत अच्छा लगता है, कभी उतना नहीं. कभी कुछ नहीं लगता."

उसने एक साँस भर कर फ़िर ऊपर देखा, "तम्हें रात के आकाश से प्यार नहीं है इसलिए. बिना चाँद और बादलों के भी आकाश का रंगरूप बदलता है. यह आकाशगंगा भी जैसे धीरे धीरे करवट बदलती है. मुझे किसी भी तारे का नाम नहीं पता. कभी कभी सोचती हूँ कोई मुझे बताये स्वाति कौन है जिसके लिए चातक सारा साल इंतज़ार करता है. अरुन्धती कौन है? लेकिन किसी से पूछूँ तो नक्षत्रों का गणित बताने लगेगा. और पूछूँ भी किससे? इसलिए मैं किसी का नाम नहीं जानती, लेकिन सबको पहचानती हूँ. जाने कितनी रातों को, जाने कितने पहर बस इनको ही देखा है."

कुछ देर चुप ऊपर देखती रही फ़िर बोली, " कभी कभी लगता है जैसे यह आकाशगंगा किसी के कानो का कुंडल है. लेकिन वह विराट रूप नज़रों में तो क्या, मन में भी समा नहीं पाता, जिसके कानों का यह कुंडल हो."

बेला के फ़ूलों की गंध धीरे धीरे नसों में भरती जा रही थी. मैं बाँह पर सिर टेक कर फ़िर उसकी तरफ़ देखने लगा था. धीरे धीरे एहसास हुआ था, झाड़ियों पर हलके उजाले की तरह छितरे हुए छोटे छोटे फ़ूल. मैंने थोड़ा सा उठ कर हाथ बढ़ा कर एक फ़ूल तोड़ लिया, और उसकी तरफ़ बढ़ा दिया. फ़ूल उसने हाथ में ले लिया. "तोड़ा क्यों? गंध तो ऐसे ही हवा में फैली है?" उसने धीरे से पूछा. "बेला के फ़ूल मैं जब भी देखता हूँ नीलिमा, या इनका खयाल भी आता है, तो तुम्हारी याद आती है, और एक लोकगीत की पंक्ति - बेला फूले आधी रात, चमेली भिनसरिया."

वह कुछ बोली नहीं थी. अचानक कमरे के अंदर एक ज़ोर का ठहाका उठा था, और हमारे चारों ओर की ख़ामोशी को फोड़ता हुआ देर तक गूँजता रहा था. लेकिन हमारे बीच की ख़ामोशी हमें जोड़े रही थी. और मुझे लगा था कि मैं भी उसे अंदर बाहर गहराई तक देख सकता हूँ, छू सकता हूँ. हमेशा नहीं तो कभी कभी तो जरूर ही. वह मेरी ओर हाथ बढ़ा कर खड़ी होने लगी थी और हलके से उसके हाथ का सहारा ले कर में भी खड़ा हो गया था.

फ़िर वह मुझे "चिन्नी" कहने लगी थी, सबके सामने. लेकिन उसे मैं बेला कहता था सिर्फ़ तभी जब और कोई न होता. महुए की गंध उसे बहुत भाई थी और रेलगाड़ी के डिब्बे में अपनी उँगलियाँ उसकी लटों में फेरते हुए मैंने अपनी सुनी सुनाई जानकारी के आधार पर उसे बताने की कोशिश की थी कि महुए की नशीली गंध कैसे गाँव के किशोर किशोरियों को पागल बना देती है, महुए की शराब का नशा कैसा गहरा होता है, पका हुआ महुआ ग़रीबों के खाने के काम भी आता है, और महुआ बीनने को जाने वाली लड़कियाँ अक्सर बाग़ में अपना बहुत कुछ लुटा भी आतीं हैं. बाद में उसने बहुत कोशिश की थी कि अपने बगीचे में महुए का एक पेड़ लगाये. लेकिन उसकी सारी कोशिश बेकार गयी, हर बार महुए ने जड़ पकड़ने से इन्कार कर दिया. आख़िरकार बेला को परिजात का एक पेड़ लगा जाने पर ही संतोष करना पड़ा, जो उसकी दूसरी पसंद थी.

फाटक खोल कर मैं अंदर चला गया, सिर्फ़ फाटक के ऊपर का गोल कुंडा लगा हुआ था. फाटक खुलने और बंद होने की आवाज़ और फिर सीमेन्ट के फर्श पर अपने जूतों की आवाज़ मुझे बहुत तेज़ लग रही थी. कहीं से और कोई आवाज़ नहीं आ रही थी. मैं दाहिने मुड़ कर पीछे की तरफ़ चला गया, जिधर बेला का सोने का कमरा था. तीनों तरफ़ दीवारों के बड़े बड़े शीशों पर परदे खिंचे हुए थे जिनके किनारों से छन कर रोशनी आ रही थी, धीमी सी. शायद कोई एक बत्ती अंदर जल रही थी. दरवाज़े के सामने आ कर मैं एक बार फिर खड़ा हो गया. पूरी दीवार के साथ सामने को निकली परछत्ती के सिरे पर चीनी मिट्टी के अलग अलग रंगों और शकलों के मनकों की दोहरी झालर लगी हुई थी.

अनजाने ही मनकों को छूने के लिए मेरा हाथ बढ़ गया और उँगलियों के छूते ही मनके बज उठे. जाने कितनी बार, जाने कितने घंटे मैंने वहाँ बैठ कर बिताये थे. बैठे बैठे मनकों पर उँगलियाँ फेरना मुझे बड़ा अच्छा लगता था. जाने कितने घंटे इस तरह बीते थे कि बेला गुनगुनाती रहती, कोई गीत, कोई गज़ल, कोई फिल्मी गीत, कहीं का भी, कोई लोकगीत, या कभी कभी कोई ठुमरी, और मैं सुनता रहता और बेला बैठी देखती, मुस्कुराती रहती. कभी कभी वह बेंत की नीची कुर्सी की पीठ पर सिर टेक कर आँखें बंद कर लेती, और काफ़ी देर तक वैसी ही बैठी रहती.

जब उसने पहली बार अपने सोने के कमरे का नक्शा दिखा कर रामन को बताया था कि वह क्या चाहती है, तो रामन ने सिर थाम लिया था. "लेकिन नीलिमा, तुम ज़रा सोचो तो, यह तुम्हारे सोने का कमरा होगा. तीन तरफ़ बगीचे में निकला हुआ, तीन दीवारों पर बड़े बड़े शीशे, चाँदनी रात में सड़क चलते आदमी को, साथ की कोठियों से, कमरे की हर चीज़ साफ़ दिखाई देगी. फिर तुम बगीचे में सफ़ेद रोशनी भी लगाना चाहती हो." रामन बीच में ही रुक गया था, जैसे समझ न पा रहा हो कि अपनी बात कैसे समझाये. बेला ने कमरे के नक्शे में तो कोई परिवर्तन नहीं किया था लेकिन अलगाव के उपाय निकाल लिए थे. मकान फाटक के सामने से पीछे तक लम्बाई में, चौकोर बना था. बाईं तरफ़ दीवार के साथ एक क्यारी थी, फ़िर एक पतले से ही रास्ते के बाद मकान की दीवार. लेकिन दाहिनी तरफ़ मकान की चौड़ाई के बाद जगह खाली थी, ऐसी ज़्यादा नहीं, जिसमें बगीचा था. इसी तरफ़ मकान के बीच में बगीचे के अंदर बेला ने अपने सोने का कमरा निकाला था, तीन तरफ़ से खुला. सड़क के साथ दीवार के ऊपर बाँस की खपाचियाँ, सींक की चिकें और टाट के टुकड़े लगा कर उसने सजावट सी कर दी थी जिससे दीवार काफ़ी ऊँची हो गयी थी.

कमरे की छत उसने पोर्टको की तरह कुछ आगे निकलवा ली थी और उसके साथ दो तरफ़, जिधर दूसरी कोठियाँ थीं, मनकों की दोहरी फालर लगा दी थी, जिन्हें फैला देने पर अच्छा खासा परदा बन जाता था.

बेला इसी जगह सर्दियों में धूप लेने के लिऐ सुबह बैठती, और गर्मियों में शाम को. यह उसकी निजी जगह थी या हमारी निजी जगह थी और यहाँ उसके बैठते ही सब लोग जान जाते थे कि वह अकेले बैठना चाहती थी. अकेले न रहना चाहती तो छत्ती के बाहर निकल कर बैठती. मैं जब भी आता तो थोड़ी देर में ही हम कुर्सियाँ बिछा कर वहाँ बैठ जाते. एक दिन अचानक कुर्सी की पीठ से सिर टिकाये बैठे उसने आँख खोल कर मेरी तरफ़ देखा था, मनकों को छेड़ती उँगलियों से मेरी आँखों तक, फिर बहुत धीरे से बड़े प्यार से बोली थी, जैसे अपने मन की कहीं बहुत अंदर की कोई बात कह रही हो, "चिन्नी!". मेरी उँगलियाँ रुक गयीं. जाने कैसी लगी वह दुलार भरी आवाज़. "तुम हमेशा अंदर से बहुत आकुल, छटपटाते रहते हो न. मेरे लिए, नीना के लिए. तमाम सब बातों, सब लोगों के लिए."

(अधूरी)

टिप्पणीः यह नारायण का विवाहित बेला/नीलिमा से प्यार, क्या अंत होता इस कहानी का? पहले तो सोचा कि शायद, बेला के मरने के बाद वह उस घर में उसके कमरे के पास आया है. लेकिन कहानी के अंतिम भाग में जिस नीना की बात करती है बेला, वह कौन थी?

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