ओमप्रकाश दीपक का लेखन कल्पना का हिन्दी लेखन जगत

जेल की डायरी

ओमप्रकाश दीपक (1960, सैंट्रल जेल, दिल्ली)

(टिप्पणीः यह लेख अप्रकाशित है. 1960 में यह लेख दिल्ली की सेंट्रल जेल में चार दिनों (20 से 23 मई) के समय में लिखा गया जब ओमप्रकाश दीपक हिंदी आंदोलन के सिलसिले में गिरफ्तार हुए थे. लेख की हस्तलिपि के हर पृष्ठ पर "दिल्ली सेंट्रल जेल" के सुपरिंटेडेंट की मुहर लगी हुई है. हस्तलिपि पर इस लेख या डायरी का कोई शीर्षक नहीं दिया गया था.)

20.05.1960

कैदियों से भरी हुई मोटर ने जेल के बाहर अहाते में चक्कर लगाये और घूम कर इस तरह खड़ी हुई कि मोटर का पिछला दरवाज़ा फाटक की खिड़की के सामने आ गया. दरवाज़ा खुला और एक एक करके हम अंदर दाख़िल हो गये. पुराने कैदी बाँईं ओर बैठे और नये कैदी दाँईं ओर दो दो की कतार में. सामने नज़र पड़ी, दीवारों पर गाँधी, पटेल, नेहरु और *** की तस्वीरें बनी हुई और साथ ही दीवालों पर हिंदी उर्दू में कुछ वाक्य, "यह जेलख़ाना, एक दूख़ला का मक़तब है ...". एकदम मेरा दिमाग चकरा गया. ये मैं कहाँ आ गया हूँ? मैंने कौन सा समाज विरोधी काम किया है? कौन मुझे सुधारेगा? ये जेल के अफ़सर और वार्डर? एक अजीब सी कड़वाहट मन में आ गयी.

"तुम किस मामले में आये हो ?" एक वार्डर ने पूछा. मैं और रामसहाय एक साथ खड़े थे. "हम सियासी कैदी हैं", मैंने जवाब दिया. वार्डर ने जा कर हमारे कागज़ देखे और आ कर कहा, "छः माह सख्त कैद. सियासी कैदी के बारे में तो कुछ नहीं लिखा है." पहले सवाल के साथ उसने कपड़ों पर हाथ फेर कर हमारी तलाशी ली थी. मेरी जेब में सिगरेटकेस में कुछ सिगरटें थीं और एक दियासलाई की डिब्बी. हम सियासी कैदी हैं यह सुन कर पहले उसने दियासलाई छोड़ दी थी, "ले जाने की इज़ाजत तो नहीं है लेकिन सियासी कैदी हो, तो हम लोगों को ***** है." अब उसने जेब से दियासलाई निकाल कर खुद रख ली.

"चलो, चलो, चलो", अंदर की फाटक खुली और हम लोग जेल के अहाते में आ गये.

रात घड़ी में अलार्म लगा कर सोया था और सुबह चार बजे ही उठ कर निकल आया था कि चार बजे से अंग्रेज़ी के बोर्ड काले करेंगे और तब तक ज़ारी रखेंगे जब तक पुलीस आ न पकड़े. शाम का खाना नहीं खाया क्योंकि सुबह चार बजे उठना था. अलार्म तो नहीं बजा लेकिन करीब दो बजे सोने पर भी पौंने चार बजे मेरी नींद खुल गयी. चाय वाय पीते बारह बज गये थे, फिर राम सहाय को कुछ चिट्ठियाँ लिखनी थीं. दो बजे के बाद नींद आयी थी. मैंने राम सहाय को जगा लिया, और सब लोग सो रहे थे. मैंने उठाया भी नहीं क्योंकि हम दोनो को ही जाना था. जोशी ने कहा था कि हमारे साथ जाने को चार आदमी और आयेंगे पर कोई आया नहीं.

अभी हल्का हल्का अँधेरा था, कुछ लोग काम पर जाने के लिए साइकिलों पर जा रहे थे. पी ब्लाक पहुँच कर हमने बोर्ड पोतने शुरु कर दिये. सारी इमारत के बारह तेरह बोर्ड हम पोत चुके थे. "सैनिक समाचार" के दफ़्तर पर संतरी का पहरा था. हमने उसका ख्याल नहीं किया. पर बोर्ड पोतना शुरु करते ही, संतरी ने आवाज़ लगायी. राम सहाय ने आगे बढ़ कर दूसरा बोर्ड पोतना शुरु कर दिया. सन्तरी ने आपने नायक को जगाया और वे दोनो बाहर आये. हम लोगों को उन्होंने रोक लिया और एक आदमी अपने जमादार को ख़बर देने के लिए भेज दिया. हम लोग गिरफ़्तार हो गये.

जमादार हमें इ ब्लाक में ले गया और फिर अपने सूबेदार मेजर से आदेश ले कर उसने पुलिस को टेली फ़ोन किया. पहले तुगलकाबाद के लोग आये. फ़िर मालूम हुआ कि पी ब्लाक पार्लिमेंट स्ट्रीट थाने के क्षेत्र में है. वहाँ से एक सब इस्पेक्टर आया और एक वायरलैस वैन में हम लोग थाने गये. थाने आ कर चाय मिली. अब तक साढ़े आठ बज गये थे. नौ बजे के बाद स्टेशन आफिसर आया तो हम उसके कमरे में ले जाये गये. उसने बातचीत काफ़ी शिष्टा से की. चाय भी पिलाई. दिन भर हमारा मुकदमा तैयार होता रहा. बीच में एक बार दुर्घटना होते होते बची. हम एक कमरे में जा कर बैठे तो वहाँ एक सिख अस्सिटेंट सब इंस्पेक्टर पहले से बैठा था. हम दोनो को सिगरेट पीता देख कर वह कुछ चिढ़ सा गया और बोला, "दफ़्तर में सिगरेट पीना मना है." राम सहाय ने कहा, "तलख़ हो कर क्यों बोलते हो ?" बस गर्मी आ गयी. कमरे में एक और भी व्यक्ति था. वह भी आ कर रामसहाय पर गरम होने लगा. लेकिन सरदारजी को शायद ख्याल आ गया कि वह शायद ज़रुरत से ज़्यादा आगे बढ़ रहे हैं. बोले, "अगर बाहर किसी ने आप के साथ बदसलूकी की है, तो हम पर क्यों गुस्सा होते हैं." खैर बात टल गयी.

दिन में "टाईमस् आफ़ इंडिया" का प्रतिनिधि आ गया. काफ़ी देर तक बातें करता रहा. लेकिन दूसरे दिन अखबारों में कुछ आया नहीं. उसके लिए दोष भी क्या दूँ. वह अखिल भारतीय नेता ही क्या जिसके साथ केवल एक ही व्यक्ति गिरफ़्तार हो ? अखबार में लगभग आठ पंक्तियों की ख़बर आयी. हिंदुस्तान टाईमस् ने पुलिस द्वारा हम पर लगाये गये अभियोग के वाक्य भी छाप दिये कि गिरफ़्तार होने पर हमने कहा कि हम अपना कर्तव्य कर रहे थे. जो बिल्कुल बेबुनियाद बात थी. उस समय तक हमें यह नहीं बताया गया था कि हमें किस कानून के मातहत गिरफ़्तार किया गया है. स्टेशन अफ़सर से मैंने पूछा तो उन्होंने बताया कि जाब्ता फौजदारी की धारा 827 लगायी है, सरकारी मक़सद से लगायी किसी चीज़ को नुकसान पहुँचाना. बाद में उन्होने पंजाब राज्य सुरक्षा कानून की धारा 2 ए भी लगा दी, गो इसका पता हमें तब लगा जब कागज़ात में सजा लिखाई जाने लगी. मजिस्टर ने हमें सुरक्षा कानून के मातहत ही सजा दी.

लगभग चार साढ़े चार बजे हम अदालत में पेश किये गये. अभियोग यह था कि बोर्ड पोतने से लगभग 100, रु. का नुकसान हुआ. मैंने मजिस्टर के सामने तीन मुद्दे रखेः 1. बोर्ड लगाने का मकसद होता है कि आम लोग उसे समझे. 2. लोकतंत्र का यह प्राकृतिक नियम है कि सरकार का काम लोकभाषा में हो. 3. यह अवधि अंग्रेजी के हटने और लोकभाषाओं के आने की है. और मैंने कहा कि इन तीन मुद्दों को ध्यान में रखें तो हमारा अपराध अधिक से अधिक एक औपचारिक अपराध रह जाता है. लेकिन मजिस्टर का दिमाग तो वैसा ही था जैसा 1949 में बगई का. बोला कि अगर एक आदमी भी अंग्रेजी नहीं समझे तो सरकारी मक़सद पूरा नहीं होता, ऐसा नहीं कहा जा सकता. दूसरे और तीसरे मुद्दे के बारे में उसने कहा कि 1965 में आप की यह दलील समझ में आने वाली होगी, अभी नहीं.

मैं जानता था कि गिरफ्तारी के समय गिरफ़्तारी के कारण न बताना ही हमारी गिरफ़्तारी को गैर कानूनी सिद्ध करने के लिए काफी था. यूँ भी अगर मुकदमा चलता तो उसमे विषेश दम नहीं था. लेकिन मैंने मजिस्टर से कहा कि मैं मुकदमे में और कोई सफाई नहीं चाहता. सामूहिक नाफ़रमानी में अगर मैं मुकदमा लड़ कर रिहाई हासिल करता तो गलतफ़हमी की काफी गुँजाईश थी, ख़ास तौर से इस कारण कि मेरे मुकदमे का असर अन्य मुकदमों पर पड़ने वाला नहीं था. अगर मुझे उस समय मालूम होता कि मुझ पर सुरक्षा कानून के मातहत मुकदमा किया गया है तो शायद मैं लड़ता क्योंकि उसके कारण उँगलियों के निशान का मसला खड़ा हो गया.

मुकदमें के पहले भी पुलिस ने उँगलियों के निशान लेने चाहे, जिससे हमने इंकार कर दिया. सफाई न देने के बयान के बाद मजिस्टर ने कहा, "छः छः महीने", और हम अदालत से चले आये. जब जेल के लिए कागज़ लिखे जाने लगे तो फ़िर उँगलियों के निशानो का सवाल उठा. उस समय यह भी पता चला कि सजा सुरक्षा कानून के मातहत हुई है. काफी धमकियाँ दी गयीं कि निशान न देने पर एक और मुकदमा बनेगा, सख्त सजा मिलेगी, पर हम अड़े रहे. और वैसे ही हमें जेल भेज दिया गया.

जेल के अहाते में अंदर आने पर, "चक्कर में चलो, चक्कर में चलो" की आवाज़ सुनाई पड़ी. चक्कर जेल का नया वार्ड है जहाँ पर कैदी आने पर पहली रात को रखा जाता है. दूसरे दिन "मुलाहिजा" होने के बाद (वज़न लेना, सामान देना, टिकट बनाना) उसे अन्य वार्डों में भेज दिया जाता है. चक्कर में जाने पर मुंशी नम्बरदार ने नाम लिखे और कहा "नया मुलाहिजा". "नया मुलाहिजा" एक बेरिक का नाम है. नौकरशाही का चक्र चल रहा था. कोई सुनने वाला नहीं. कागज़ पर लिखा है "छः माह सख्त कैद". इस एक वाक्य का जेल वालों के लिए कुछ अर्थ है, और उसी के अनुसार हर काम होगा. वार्डर फाटक छोड़ कर कहीं नहीं जा सकता था. दफ़्तर में बैठे हुए एक नम्बरदार से हमने बात की तो उसका उत्तर था, "हम तो मामूली कैदी हैं साहब. हम किसी अफ़सर से बात नहीं कर सकते. आप ही कीजिये."

हम आ कर बारिक के जँगले के पास आ कर बैठ गये. उसी समय वहाँ एक कैदी आया. सिगरेट पी कर उसका टोटा मैंने नीचे डाल दिया और उसे पैर से कुचलने जा रहा था कि उसने टोटा उठा लिया और साथ ही पूछा, "आप के पास सिगरेट है, बाबूजी ?". "हाँ", मैंने एक सिगरेट निकाल कर उसे दे दी. ज़िन्दगी में शायद ही कभी किसी ने इतने खुले दिल से दुआएँ दी होंगी जैसी एक चारमीनार सिगरेट पा कर उस कैदी ने दीं. दाढ़ी और बाल रुखे और बेतरह बढ़े हुए, एक बहुत मैला कपड़ा तहमत की तरह बँधा हुआ. मैंने सोचा कि उससे बातें करुँ लेकिन सिगरेट ले कर दुआएँ देता हुआ वह पीचे मुड़ कर चला गया, फिर दिखाई नही़ दिया.

उसी समय कैदी फाटक की ओर लपके, अल्फ्रेड आ रहा था. अल्फ्रेड बीस साल की कैद काट रहा एक कैदी था. कुछ दिन पहले उसने तेल में अफ़ीम मिला कर पी लिया. इलाज के लिए उसे इर्विन अस्पताल ले जाया गया और वहाँ से वह मौका देख कर भाग निकला. तीसरे दिन वह अपनी पत्नी से मिलने की चेष्टा करते हुआ पकड़ा गया. इस बार उसे भारी बेड़ी लगा कर लाल कपड़े पहना दिये गये. सारे कैदी उसे देखने को बाहर टूटे. भीड़ छंटी तो हम भी बाहर आहाते में आये. उसी समय श्री गुलियानी नज़र आ गये. जब मधु गिरफ्तार हुए थे तो वे हिसार जेल में थे इस कारण रामसहाय उन्हें पहचानते थे. राम सहाय ने उनंहें जा कर बताया कि हम लोग पार्टी की सिविल नाफरमानी में आये हैं और हमें अलग रखा जाय. अगर श्री गुलियानी न मिलते तो रात शायद वहीं काटनी पड़ती. हमने नम्बरदार को कह दिया था कि अगर हमें अलग नहीं रखा गया तो हम खाना नहीं खायेंगे. लेकिन खाना तो यूँ भी मिलना ही नहीं था. थाने से जो सिपाही हमें ले कर आये थे उन्होंने जेल पहुँचने पर एक कागज़ में लिपटी हुई कुछ रोटियाँ हमें पकड़ा दीं थीं लेकिन उन्हें कौन खाता. सूखी हुई रोटियाँ, साथ खाने को भी कुछ नहीं. हमने साथ के कैदियों को दे दीं. दिन में भी मैंने थाने में केवल एक रोटी खायी थी. लेकिन नौकरशाही की चक्की में इन्सानियत पिस जाती है. ऐसी बातें कौन सोचता है, कौन पूछता है ?

सूरज डूबते ही हम बारिक में बंद कर दिये गये. एक कैदी ने हमदर्दी से एक पुरानी फटी हुई दरी मुझे और एक रामसहाय को दे दी. उसी समय चक्कर जमादार ने आ कर बताया कि हमें निकाल कर राजनैतिक बन्दियों के वार्ड में रखा जायेगा. जेल के अधिकारी ग्यारह को या उसके बाद हमारे आने की उम्मीद कर रहे थे. थोड़ी देर के बाद पर्चा आ गया और हम एक नम्बरदार के साथ राजनैतिक वार्ड में आ गये. यहाँ पँखे लगे हैं. पँखा खोल कर हम लोग लेट गये. आते समय एक २ कम्बल, दरी और चादर भी हमें दे दिये गये, राजनैतिक कैदी होने के नाते शायद यह सुविधा दी गयी वरना तो यूँ ही रात काटनी पड़ती. मानसिक तनाव काफी था. नींद देर से आई और जल्दी टूट गयी. नींद भी बड़ी हल्की. कुछ इस कारण भी कि फर्श पर सोने की आदत अभी नहीं थी.

21.05.1960

हमारा नम्बरदार कुछ अच्छे घर का लगता था. यानि कुछ पढ़ा लिखा, ऊँची जात का, बातचीत में चतुर. मालूम हुआ कि जैन है. उसके पास एक डिब्बी में जला हुआ सूत और एक रेती का टुकड़ा था. सिगरेट जलाने के लिए जेल में यही काम आता है. अंधे नियम का अंधा नमूना है. सिगरेट अंदर ला सकते हैं दिया सिलाई नहीं. साफ़ मतलब है कि बेईमानी करो. रोज़ हमें तीन चार दिन तक रोज़ लंदन नेवी कट की एक सिगरेट ला कर देता रहा. कुछ कड़ुआ तेल और लाइफ़बाय भी उसके पास था. यह भी अच्छा था क्योंकि हमसे मिलने तो 14 तारीख़ तक कोई आया ही नहीं. कमला के पास पैसे बिल्कुल नहीं थे और भला किसको फिक्र होती.

सुबह खाना खाया. खाना भी सात साढ़े सात बजे तक आ जाता है. चाय का कोई सवाल ही नहीं था. नौ साढ़े नौ पर श्री पुरी मुआईने के लिए आये. पहले तो हमारी नौजवालनी के सहारे उन्होंने कहा कि आप लोग कैसे आ गये. फ़िर जब मैंने बताया कि मैं अठारह साल से राजनीति में हूँ तो कुछ चौंके. बोले कि आप तीस पैंतीस के लगते नहीं. आपकी उम्र बहुत कम लगती है. फ़िर पार्टी की माँगों के सम्बंध में कुछ बातें होने लगी, वही अखबारी बेपढ़े लोगों की बातें कि विकासनशील अर्थतंत्र में मँहगाई तो होती ही है, माँग और पूर्ति के उतार चढ़ाव के साथ अनाज़ का भाव भी चढ़ता गिरता ही है. फ़िर बात मशक्कत की उठी. हमने साफ़ इंकार कर दिया कि हम मशक्कत नहीं करेंगे. पुरी साहब बोले इससे तो देस का धन पढ़ता है. मैंने कहा कि अगर अपनी मर्जी की बात हो तो शायद मैं खुद कुछ न कुछ करना चाहूँ, लेकिन यह तो सिद्धांत का प्रश्न है कि राजनैतिक बंदी को मशक्कत के लिए मजबूर किया जाय या नहीं. उन्होंने कहा कि आगर आप मशक्कत से इंकार करेंगे तो और एक मुकदमा बन जायेगा. मैंने कहा, मजबूरी है.

दोपहर में लेटा सोचता रहा, अगर जेल में यही हाल रहा तो कुछ ही दिनों में ये हमारी आत्मा को कुचल कर रख देंगे. पिंजड़े में बंद, दुनियाँ से अलग, अंधे नियमों के आधीन, जिनका एकमात्र लक्ष्य आदमी की स्वतंत्र आत्मा को मारना है. और मुझे याद आया, "यह जेलख़ाना एक इख़लाक़ी मक़तब है." कड़ुआहट भरी हँसी आई. और मैंने निश्चय कर लिया कि शाम से खाना नहीं खाऊँगा.

शाम का खाना मैंने नहीं खाया और दरख़ास्त लिखने के लिए कागज़ माँगा. शाम को कागज़ मिल गया. दिन में हमारे लिए कैदियों वाले कपड़े भी आ गये. हमने कपड़े लेने से भी इंकार किया. कपड़े वे रख गये. मैंने चीफ़ कमीश्नर को पत्र लिख कर दस माँगें रखीं. सुबह पत्र डयोढ़ी भिजवा दिया. नौ बजे के करीब श्री पुरी ने बुलवाया. हमें देख कर मुस्कुराये. फ़िर उन्होंने अपनी ओर से जेल सम्बंधी अधिकतम सहूलियतें देने का वादा किया और कहा कि मैं भूख हड़ताल तौड़ दूँ. अगर माँगें रखनी ही हों तो नोटिस दे दूँ कि अमुक तारीख़ से भूख हड़ताल करुँगा. मैं स्वयं तो नहीं मानता. लेकिन राम सहाय ने कहा कि इस पर सोचा जा सकता है. फ़िर बारिक में आ कर भी वह यही कहता रहा कि हमें जेल वालों से सुलह कर लेनी चाहिये. जब वे हमारी बात मानते हैं तो झगड़ने से क्या फ़ायदा. श्री पुरी ने मान लिया कि हम अपने कपड़े पहिनें, चाहें तो काम करें, न चाहें तो न करें, चाय ख़रीद कर पी सकते है, लिखने पढ़ने की पूरी सुविधा रहेगी, बाहर से किताबें भी मँगा सकते हैं. अखबार हमें पढ़ने के लि मिल जायेंगे.

ये बातें अनौपचारिक थीं. और मैं चाहता था कि जब भूख हड़ताल तो मामले का आखिर तक ले जा कर पूरा फैसला करा लिया जाये. लेकिन रामसहाय के ज़िद भरे रुख़ के कारण मुझे भूख़ हड़ताल तोड़नी पड़ी. दो ही आदमी हों, उनमे भी क लड़ने के पक्ष में न हो, तो गाड़ी कैसे चलती. बाद में उसका नुकसान भी हुआ. मामला अटका पड़ा है. अगर उस समय मेरी भूख हड़ताल चलती रहती तो अब तक फैसला हो गया होता. बारह तारीख को मैंने दुबारा प्तर लिख कर दिये. वही दस माँगें रखीं.

तेरह की सुबह ही बुलावा आया कि अदालत में पेशी है. मालूम हुआ कि उँगलियों के निशान लेने का मामला है. भूख हड़ताल तोड़ देने का बहुत अफसोस हुआ. खैर अदालत में मैंने मजिस्टर से कहा कि मैंने चीफ़ कमिश्नर को पत्र लिखा है. इस पर उसने मामला स्थगित कर दिया. अब कब पेशी होगी, यह पता नहीं. अगले हफ्ते किसी दिन शायद हो. पुलिस अपनी ओर से पूरी तैयारी करके आयी थी. उनका इरादा शायद जबरदस्ती निशान लेने का भी था. पर बात टल गयी.

वह दिन हमें पूरा हवालात में गुज़ारना पड़ा. क कमरे में, करीब आठ दस फुट चौड़ा और बारह पंद्रह फुट लम्बा, पैंतीस आदमी बंद कर दिये गये. पाख़ाना पैशाब भी अंदर ही. सफाई सुबह से शायद हुई ही नहीं थी. दुर्गंध से सिर फटने लगा. पीने के लि क बाल्टी में ला कर पानी रखा गया. उसे क व्यक्ति ने पाख़ाने में उलट दिया. तब जा कर हवा कुछ साफ़ हुई. बैठे बैठे कमर अकड़ गयी. मोटर से उतार कर हवालात में लाने के समय हथकड़ी लगाने की बात भी उठी. लेकिन हमारे इंकार करने पर वह हमारा हाथ पकड़ कर ही अंदर ले आये. हवालात की दीवालों पर नाम खुदे हुए थे. लेकिन मैंने देखा कि दीवालों पर कहीं कोई अश्लील बात नहीं लिखी है. सिर्फ एक ओर किसी ने पेंसिल से एक औरत की तस्वीर बनाने की कोशिश की थी,और एक जगह खुदा हुआ था "श्यामा सहगल". अन्यथा कैदियों ने अपने नाम, तारीखें और कहीं कहीं अपने पते ही डाले थे.

उस दिन हमारे साथ एक दिलचस्प व्यक्ति बंद था. एक सदरी नीचे, ऊपर गरम कुरता, उसके ऊपर गरम सदरी (मई की 13 तारीख को!), धोती और सिर पर गर्म गाँधी टोपी, भूरे रंग की आँखों पर चश्मा. मोटर में ही उसने हम से बातें शुरु कर दीं, कि वह राम राज्य परिषद का सदस्य है. थोड़ी देर की बात के बाद ही उसने फ़तना दे दिया कि हम तो भ्रष्ट हैं, सारे देश को भ्रष्ट करना चाहते हैं. देखने में ऐसा लगे जैसे पड़ोस के जनरल स्टोर का मालिक होगा. मालूम हुआ कि उस पर दो मुकदमे चल रहे हैं, एक 109 का, दूसरा 420 का. उस दिन हमारे साथ बंद लोगों में वह अकेला था जिसका कहना था कि वह बेकसूर है. यूँ बातचीत में उसने स्वीकार किया कि धारा 420 (धोखाधड़ी) के जिस मामले में उस पर मुकदमा है, उसमे कमीशन उसे भी मिलता, पर मिला नहीं.

जनपथ पर हुई जवाहिरातों की चोरी के अभियुक्त भी साथ थे. एक मुसलमान, अधेड़, बड़ी बड़ी मूँछें, तेज़, पैनी आँखें, आशिक अली. एक गोरखा जो देखने में किसी हाकी या फुटबाल की टीम का खिलाड़ी लगता था, बुद्धिपूर्ण दमदार आँखें, आकर्षक चेहरा, और तीन चार पंजाबी. उनकी शक्लें यों ही थीं जैसे शहरी शोहदो की होती हैं. मुझे बताया गया कि गोरखे को पुलीसवालों ने बहुत मारा पर उससे कुछ कहलवा नहीं सके. दूसरों ने मार खाने पर जुर्म स्वीकार कर लिया. यह भी बताया गया कि माल कुल साढ़े सात लाख का था पर आयकर के झगड़े के कारण मालिकों ने चार लाख ही बताया था. उसमे से तीन लाख का माल मिला, साढ़े चार लाख का सामान अभी भी दबा पड़ा है.

चौदह को बिहारी लाल मिलने आया. उसे हमने सारी बात बता दी और कहा कि अख़बारों में बयान भी दे. यह भी कहा कि बीस तारीख तक उन लोगों को जेल आ जाना चाहिये. अब तक अख़बारों मे तो कुछ आया नहीं. भवानी दास ने एक चिट्ठी गृहमंत्री को भेजी है, उसकी एक नकल मेरे नाम भी भेज दी है. ख़त क्या है, पूरी बक़वास है. एक पेज़ में तकरीर है कि सरकार अंग्रेज़ी की हिफ़ाज़त के लिए सख्त सज़ाएँ दे रही है. बाकी में लिखा है कि हमें सरकारी कैदी तस्लीम किया जाये. उँगलियों के निशान की कोई चर्चा नहीं. आज 21 हो गयी है, कोई गिरफ़्तारी भी नहीं हुई. जोशी का एक ख़त कल मिला था, 19 तारीख का कि एक दो दिन में मिलने आयेंगे.

शाम को गुलयानी ने बुलाया. सलाह दी कि जिन बातों पर श्री पुरी से समझौता हो चुका है, उन्हें मैं अपने ख़त में न लिखूँ. मैंने भी सोचा कि अगर चिट्ठी से ही काम चल जाता है और उँगलियों के निशान का मामला ख़तम हो जाता है, फ़िर तो भूख हड़ताल की कोई ज़रुरत नहीं और जेल वालों के साथ सहूलियत से ही काम निकल जायेगा. अगर भूख हड़ताल करनी पड़ती है फ़िर तो सारे मामले का पूरा फैसला होगा ही. इसलिए दुबारा पत्र लिख कर तीन माँगें ही रखीं, रजिस्टर पर अँगूठे का निशान, ञशक्कत और उँगलियों के निशान. बाकी सारी बातें राजनैतिक बंदी की साधारण माँग के अन्दर ही आ जाती हैं.

बिहारी उसी दिन घर से कपड़े वगैरह ला कर दे गया. छः दिन बाद कपड़े बदले, बहुत ही गंदे हो गये थे. अपना बिस्तर तकिया भी आ गया. कुछ सादे कागज़, कुछ चिट्ठियाँ और दाढ़ी बनाने का सामान ड्योढ़ी पर रोक लिया. दाढ़ी का सामान तो मिल गया पर कागज़ और चिट्ठियाँ अभी भी नहीं मिले. चाय का मामला भी कुछ बन नहीं सका. सुबह चाय आती भी है तो आठ साढ़े आठ बजे. शाम को भी वही हाल. आते आते ठंडी हो जाती है. आदत भी करीब करीब छूट गयी है. इसलिए सोचता हूँ कौन झगड़ा करे.

सोमवार को कमला और पलटा मिलने आयीं. गुड्डू पिंकी भी साथ थे. कलम, कुछ शादी की मिठाई और चार डिब्बी सिगरेट, चाय की दो कूपन बुक, कमला दे गयी. पैसे उसके पास बिल्कुल नहीं. काफ़ी परेशान सी थी. उसकी आँख भी अभी ठीक नहीं हुई. पिंकी पहले तो कुछ सहमी सी थी. फ़िर मैंने गोद में ले कर प्यार किया, तो खुश हो कर खेलती रही. अगले तीन चार दिन यूँ ही बीते. अखबार पढ़ना, जेल के पुस्कालय से मँगवा कर उपन्यास पढ़ना, सुबह थोड़ी वर्जिश और सोना. खाना भी बहुत कुछ हज़म होने लगा है. दिन में चना मिल जाता है और रोज़ का एक छटाँक गुड़. खाना तो बहुत खराब है फ़िर भी गाड़ी चलती है. मेरा ख्याल है अगर रोज़ की थोड़ी वर्जिश का क्रम चलता रहा तो बीमार पड़ने का कोई खतरा नहीं होगा.

कल दिन में कमला अचानक फ़िर आ गयी. उसने कहा था कि प्रेम के हाथ सामान भिजवा देगी पर बड़ी बहन जी के यहाँ होने के कारण शायद उसे ही आना पड़ा. बाहर इंतज़ार में काफ़ी देर खड़े रहना पड़ा. काफ़ी उद्वग्न थी लेकिन और कुछ बताया नहीं. यह सूचना दी कि शन्नो की कल (20 तारीख को) शादी थी. किसी विधायक के सुपुत्र से. काफ़ी देर तक मन परेशान रहा. उसने यह भी बताया कि पलटा से उसने सौ रुपये लिए हैं. पैसों का कुछ इंतज़ाम करना पड़ेगा वरना बहुत मुश्किल पड़ेगी. देखो कुछ न कुछ तो होगा ही. बद्री की दो तीन चिट्ठियाँ थीं. "अभिशप्त" कल्पना में स्वीकृत हो गयी है. कमला की उद्वग्नता अपने मन पर भी चोट कर गयी. लेकिन जेल में बंद आदमी क्या करे. बाहर भी सद्भावना, सांत्वना के अलावा मेरे जेसा आदमी और क्या कर सकता है. फ़िर जेल में तो और भी मजबूरी होती है. कोशिश बाहर ज़्यादा आसान होती, यहाँ से कुछ मुश्किल है. फ़िर भी कुछ तो करना ही पड़ेगा.

22.05.1960

कैद की ज़िन्दगी किसी भी हालत में बुरी होती है. लेकिन जो राहतें हो सकती हैं, वे भी करीब नहीं हैं. दिमाग जैसे कुंद सा हो गया है. कुछ याद नहीं रहता. मन जैसे किसी तरह झंझटों से बच के आराम करना चाहता है. लेकिन जेल झंझट से पीछा भी कहाँ छूटता है. छोटी 2 बातें जिनकी यूँ कोई अहमियत न हो, यहाँ बड़ी बन जाती हैं. हमारे नम्बरदार की आदतें दिन ब दिन बिगड़ती जाती हैं. एक बार जाता है तो घंटों शकल नहीं दिखाता. कल तो वह दिन भर ही गायब रहा. चार दिन हो गये हैं दाढ़ी बनाने के लिए ब्लेड नहीं मिला. चाय सुबह खाने के बाद मिलती रही, वह भी बिल्कुल ठंडी और स्वाद में चाय तो नहीं ही लगती थी और जो भी हो. कल शाम से वह भी नहीं. एक्ज़ेमा पहले तो मरहम से सुधरा था, इधर फ़िर दाने निकल रहे हैं. न कोई मिलने आया है, न रामसहाय का सामान देने. कोई गिरफ्तारी भी नहीं हुई. लगता है होगी भी नहीं. शायद जून में हो तो हो. परसों से तो मुझे भूख हड़ताल करनी है. देखें क्या होता है. अगर हम दो ही न होते तो मैं तनहाई में रहना पसंद करता. छोटी छोटी बातों पर जो दिक्कते आती हैं, न आतीं. कम से कम मुझे अपना दिमाग तो न खराब करना पड़ता. लेकिन अगर हम सिर्फ दो ही न होते तो शायद इसका ख्याल भी न आता.

जेल में आ कर कुछ थोड़ा बहुत तो दिमाग विकृत हो ही जाता है. कल मैं बैठा बैठा यह सोचता रहा कि मुझमें और उन बदमाशों में जो यहाँ कैद हैं, अंतर क्या है. और मुझे लगा कि अंतर केवल इतना ही है कि मैं अपने को, नये अनुभवों और जोख़िम उठाने की अपनी इच्छा को कुछ आदर्शों के साथ बाँध सका, शायद इस कारण कि बचपन में मेंने केवल जासूसी उपन्यास ही नहीं, काफ़ी संख्या में अच्छे उपन्यास भी पढ़े थे. अन्यथा मूल गति तो शायद वही है. राजे ने बताया कि वह सातवें में पढ़ता था, चौदह पंद्रह बरस का जब एक बार गर्मियों में स्कूल के कुछ लड़कों के साथ शिमला नैनीताल जाने के लिए उसने पिता से दो सौ रुपये माँगे. रुपये नहीं मिले तो अल्मारी में रखी सोने की चूड़ियाँ ले कर बम्बई भाग गया. फ़िर एक दुकान कर ली चाय की. धोखाधड़ी, जेबकतरों की सहायता और उनके माल में हिस्सा बँटाना, लोगों को बात 2 पर चाकू मार देना, उनके सहारे पैसे कमाना और शराब, चरस वगैरह में उड़ाना, यही उसकी ज़िन्दगी रही. एक मुकदमे में ख़िलाफ़ गवाही देने वाले को उसने मार डाला, उसी जुर्म में छः साल की कैद हुई है. अब वह कहता है कि उसे बदमाशी पसंद नहीं रही. लेकिन मैं समझता हूँ कि वह जेल से निकल कर वह फ़िर पहले जैसा ही हो जायेगा. एक तो अपने कामों पर उसे एक विचित्र सा गर्व है. दूसरे जेल से निकलने पर कातिल बदमाश के रुप में उसे एक विचित्र सी प्रतीष्ठा मिलेगी ही और वह उस प्रतीष्ठा की भी रक्षा करना चाहेगा.

उसने एक दिलचस्प किस्सा और भी सुनाया. पाँच साल पहले एक डाक्टर की लड़की से उसे प्रेम हो गया था. प्रेम का उसे प्रत्युत्तर भी मिला. घर वालों को पता चला तो रोकथाम हुई. एक २ तरकीब ये मिलने की सोचते और घर वाले रोकने की. और एक दिन वह लड़की घर से आठ हज़ार रुपये ले कर निकल आयी. डेढ़ महीने तक दोनो जगह जगह घूमते रहे. लड़की नाबालिग थी. आगरा स्टेश्न पर एक दिन वे पकड़े गये. अदालत में लड़की ने बयान दिया कि वह अपनी मर्जी से गयी थी. इस कारण राजे बरी हो गया. फिर लड़की की शादी होने लगी. राजे के एक दोस्त की दुकान पर वह चूड़ियाँ पहनने आयी. खबर पा कर राजे आ गया. "ये शादी की चूड़ियाँ हैं", राजे के हाथ से चूड़ियां पहन कर उसने कहा. "तो जो वादे तुमने किये थे वे झूठे निकले ?" "यह तो वक्त बतलायेगा". और जब बारात आ कर दरवाज़े पर खड़ी हुई तो वह चौथी मंजिल से कूद पड़ी. नीचे ट्राम की लाईनों पर गिरी और हड्डी पसली चूर हो गयी.

मुझे लगा कि अगर राजे को उसकी मूर्ती मिल जाती तो शायद उसकी ज़िन्दगी में वह नौबत न आती जो उसे जेल ले उयी थी.

हमारे वार्ड में मच्छरों, चूहों, और चीटियों की भरमार है. ग़नीमत है कि पँखे लगे हैं जिनसे रात को मच्छरों से बचत रहती है, वरना सोना हराम हो जाता. चींटियाँ इतनी हैं कि ज़रा सी भी खाने पीने की कोई चीज़ कहीं गिर जाये, झट चीटियाँ ही चीटियाँ हो जाती हैं. वार्ड के सारे मैदानों में चूहों ने अपने सैकड़ों बिल बना रखे हैं. ये शहरी चूहों की तरह मटमैले रंग के नहीं, बल्कि खूबसूरत भूरे रंग के हैं. पेट का रंग सफ़ेद है. कुछ कुछ छोटी जाति के हैं, कुछ बड़े, खरगोश के बच्चों जैसे. कबूतर भी काफ़ी हैं. एक दिन तो मैंने गिना घास पर तीस कबूतर बैठ कर चुग रहे थे. लेकिन फ़िर नहीं दिखाई पड़े.

मैं अनुभव करता हूँ कि मेरे विचारों में कोई तारतम्य नहीं है. लेकिन करुँ क्या ? दिमाग ही ऐसा हो गया है. एक बात कहीं की आती है तो दूसरी उससे बिलकुल असम्बद्ध. कल जेम्स हिल्टन का एक उपन्यास पढ़ा Knights without Armour (नाईट विदाउट आरमर) , और मुझे लगा कि जिन्हें हम सबसे ज़्यादा सुख देना चाहते हैं, सबसे ज़्यादा प्यार करते हैं, उन्हें ही सबसे ज़्यादा दुख भी देते हैं. प्यार एक दुधारी तलवार है. दुख सुख दोनो ही बाँटे जाते हैं. लेकिन मेरे जैसे आदमी की ज़िन्दगी में तो प्यार अपने आप में ही एक सुख है. अन्यथा, वह जो मुझसे प्यार करे, उसे दुख ही बाँटना पड़ता है, सहना भी पड़ता है. सुख भी बँटता है पर सुख मैं दे नहीं सकता किसी को.

कभी कभी सोचता हूँ कि क्या हो रहा है. अभी तक जो खबरें आयीं हैं उनसे लगता है कि सिविल नाफरमानी या तो अभी पूरे जोर से आई नहीं या फिर पार्टी इस तरह विकलांग हो चुकी है कि अब ज़्यादा की उम्मीद नहीं की जा सकती. अभी तक तो मेरा ख्याल है कि पहली ही बात सच होगी. बिहार का कोई समाचार अब तक कहीं पत्रों में नहीं आया. मैं ये नहीं मान सकता कि बिहार में कुछ होगा नहीं. दूसरे सूबों की ख़बरें भी छिट पुट ही आ रहीं हैं. लगता है कि लड़ाई जुलाई तक तो खिंच ही जायेगी. वापसी की नौबत तो शायद नवम्बर दिसम्बर तक आये. यूँ तो हमारी रिहाई सितंबर में ही होनी चाहिये, लेकिन भूख हड़ताल का क्या नतीज़ा निकलता है, यह नहीं मालूम.

सोचता हूँ उपन्यास लिखना शुरु करुँ, लेकिन भूख हड़ताल के बाद ही शुरु करना अच्छा होगा. कौन जाने क्या नतीजा निकले. शायद ज़िंदगी के ये आखिरी दिन हों. सरकार का क्या ठिकाना. मुमकिन है हठ करके अड़ जाये और मुझे अपनी जान देनी पड़े. ऐसा होना तो नहीं चाहिये पर देखें क्या होता है.

23.05.1960

कुछ याद नहीं रहता. दिमाग़ न जाने कहाँ भटकता रहता है. कुछ अज़ीब सी ही हालत है. कल कुछ सोचा था कि डायरी में लिखूँगा पर भूल गया.

कल का सारा दिन यूँ ही गुजरा. इतवार था, पुस्तकालय से किताब भी नहीं मिल सकती थी. दिन में सोने की कोशिश की पर नींद नहीं आयी. चाय भी नहीं मिली. हज्जाम आया था, बाल छोटे छोटे करवा दिये हैं. दाढ़ी नहीं बन सकी, उसके पास ब्लेड पुराना था. इतवार के कारण नया ब्लेड भी नहीं मिल सका. आज हरभगवान, हेड वार्डर, ब्लेड दे गया. कुछ चिट्ठियाँ भी जो कमला ने 14 को भेजीं थीं. इस बीच में कमला दो बार मिल गयी. अजीत घोष वाला पहाड़ी कलम सम्बंधी लेख अभी ड्योढ़ी में ही पड़ा है. माँगा है, उसके मिलने में भी ख़ुदा जाने कितने दिन लगेंगे. नम्बरदार कल दिन भर गायब रहा. तीन चार दिनों से यही कर रहा है. आज भी सुबह ही चला गया. किताबें चाय तो भिजवा दीं थीं, खुद नहीं आया. हाथ के लिए मलहम मँगवाना था. अब तो शाम को ही आयेगा. रात को हल्का सा जुलाब भी लेना चाहता हूँ ताकि कल तबियत ठीक रहे. कल से तो खाना बंद ही करना है. आज सुबह दाल में नमक नहीं था. गुड़ के साथ थोड़ी सी रोटी खाई, बाकी खाना फैंक दिया. ज़मादार थोड़ा नमक दे गया है. आगे कभी काम आयेगा. यूँ भी खाना जो आता है उसका खुदा ही मालिक है. लोह पर पकाई हुई रोटियाँ, भट्टी पर बड़ी सी लोहे की चद्दर डाल कर उस पर बड़ी 2 हाथी के कान जैसी रोटियाँ सेंक लेते हैं, कभी अधकच्ची, कभी जगह २ जली हुई. सुबह दाल मिलती है, बारी 2 से उर्द, मूँग और मसूर की, इतवार को चने की. उर्द, मूँग खड़े होने के कारण इनकी दाल गनीमत होती है, लेकिन मसूर और चने की दालें तो ऐसा लगता है जैसे सफाई के बाद जो कचरा निकलता है, उसी की मिट्टी साफ करके बना देते हैं. मसूर होती तो खड़ी है लेकिन दाल देख कर अंदाज लगाना मुश्किल है. शाम को सब्जी आती है, चप्पन कद्दू, अंगीठी पर चढ़ने के पहले ही पके हुए और अंगीठी पर से कच्चे ही उतारे हुए, आलू, आधे सड़ेबिना काटे हुए जिसमें अक्सर फटे हुए आलू यूँ ही उबाल देते हैं, छिलकजे की मात्रा, आम तौर पर आलू से ज़्यादा. लेकिन नायाब चीज़ तो है कुल्फे का साग. वर्णातीत है. बस इतना ही समझें कि रसे के साथ (दाल सब्जी दोनों में ही लाल मिर्च इतनी होती है कि मुझे कभी कभी डर लगता है कि कहीं बवासीर न हो जाये मुझे), थोड़ी बहुत रोटी खा ले तो खाले वरना भूखे ही रहना पड़े. खाने की सबसे अच्छी चीज़ें तो हैं भुने हुए चने और गुड़. बामशक्कत सजा मिली है इसलिए रोज़ एक छटांक गुड़ मिल जाता है, सादी कैद होती तो वह भी न मिलता. सुबह की रोटी तो नाम को ही खाई जाती है. पेट तो ग्यारह बजे के करीब गुड़ चने खा कर ही भरता है. शाम को भूख ज़्यादा लगती है. फिर सब्जी कैसी भी हो (अगर कुल्फा न हुआ तो) दाल की अपेक्षा उससे रोटी खाना ज़्यादा आसान होता है.

ज़िन्दगी अपनी रक्षा के लिए कैसी परिस्थितियाँ स्वीकार कर लेती है. यह खाना साधारण स्थिति में खाना असंभव हो. बाहर तो अगर भूखे भी रहना पड़े तो यह खाना न खाया जाये. चने भी रोज खायें तो पेट खराब हो जाये. लेकिन यहाँ सब चलता है. शरीर ने इसी से अपनी रक्षा करने की आदत एक हफ्ते के अंदर ही डाल ली है. पेट भी बाहर जैसा ही है, बिल्कुल ठीक नहीं लेकिन कुछ ऐसा गड़बड़ भी नहीं. चाय तो करीब करीब छूट ही गयी, अगर शुरु में राजे बिना कहे हुए ही सिगरटें ला कर न देता रहता तो वह भी छूट जाती. अब भी भूख हड़ताल करने पर शायद दोनो चीज़ें छूट जायें. कमला का जो पत्र आज मिला है, 14 तारीख का, वह तो सामान्य ही है. फिर इस बीच उद्वग्निता उत्पन्न होने का क्या कारण है ? पैसे ? या सिर्फ उस दिन धूप में इंतज़ार ? या बड़ी बहिन जी ने कुछ कहा ? किसी और ने कुछ कहा ? कोई उत्तर मेरे पास नहीं. हो भी नहीं सकता. मन कुछ दिन परेशान रहेगा. अगली बार मिलने पर ही कुछ पता चलेगा. अगर तब भी कमला ऐसे ही उद्वग्नि रही तो मुश्किल होगी, वरना यह बात यहीं खतम होगी. जेल के नतीजो में ही इसे गिन कर भुला देना होगा.

कमला तो उस दिन ऐसी मुद्रा में थी कि मैं सारा समय अपने को अपराधी सा ही अनुभव करता रहा. कुछ चिट्ठियाँ लायी थी, वे भी मैंने नहीं पढ़ीं. बद्री की चिट्ठी पढ़ ली थी. ऐक चिट्ठी मनमोहिनी जी (लहर) की भी थी. पता नहीं उसमे क्या था. बहर हाल.

आज Pickwick Papers (पिकविक पेपर्स) मिल गयी है पढ़ने को, दिन तो कट ही जायेगा.

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(टिप्पणीः यह डायरी यहीं तक थी. साथ में दो पन्ने खाली थे. शायद भूख हड़ताल शुरु करने के बाद नहीं लिख पाये ? इतना अवश्य है कि इस जेल के अनुभव उनके उपन्यास "कुछ ज़िन्दगियाँ बेमतलब" में बहुत जगह उभर के आये)

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