ओमप्रकाश दीपक का लेखन कल्पना का हिन्दी लेखन जगत
कविता
दिल्ली, 1967
मरे निराला
मरे मुक्तिबोध
जवान खूबसूरत रंगू भी
शादी के छः महीने के अंदर ही मर गया.
(गांधी मरे थे खंडित आज़ादी के छः मास बाद ही)
राजकमल मर गया
और अब लोहिया की राख हम
जमुना में बहा आये हैं.
मैंने देखी थी वह लड़ाई
अजीब बात है
मुझे याद आता रहा ड्यूमा का मानस पुत्र
पार्थास
पहाड़ सा आदमी,
अपने से सौ गुने पहाड़ों का बोझ
कंधों पर उठाये
बोझ को उतार फेंकने को
लड़ता हुआ, धीरे धीरे दबता, कुचला जाता हुआ
दसवें दिन बेहोशी में निकलती थी थमी हुई आह
ग्यारहवें दिन नकली सांस के यंत्र ने
मुंह बन्द कर दिया
तीन बीबियां मर जायें एक के बाद एक
तो यह आक्समिक नहीं, संयोग नहीं हो सकता
कहा था उसने
इस व्यवस्था को झकझोरने, तोड़ने वाला
हर आदमी मर जाये
अस्पताल में या पागल हो कर, या गोली खा कर
तो यह आक्समिक नहीं, संयोग नहीं हो सकता.
ओम प्रकाश दीपक
तुम कब मरोगे?
अकाल मृत्यु ही
इस व्यवस्था से लड़ने में
हर आदमी की नियति है
खाद बनना ही तुम्हारी नियती है
ओमप्रकाश दीपक
तुममें उसकी सी ताकत नहीं
उस तरह लड़ नहीं सकोगे तुम
व्यवस्था के लौह दुर्ग को
तोड़ नहीं पाओगे तुम
लेकिन कौन जाने
क्योंकि उसने रक्त बीज नहीं छोड़े
जिनसे असंख्य राक्षस पैदा हों
उसने छोड़े हैं विचार बीज
हजारों छोटे छोटे आदमियों के मन में
सुलगती हुई चिनगारियां
शांत हो जाओ
ठंडा करलो अपना मन
ईंधन बनना ही तुम्हारा कर्म है
बढ़े चिनगारियां
फ़ूटें लपटें
गल जाये व्यवस्था का लौह दुर्ग
शायद आदमी के मन में उठती हुई
विवेक की, समता की आग में
तुम कब चुक जाओगे
ओम प्रकाश दीपक
इसका कोई महत्व नहीं
बात सिर्फ इतनी है कि जब तक जियो
ठंडे हो कर चुपचाप
होम करते रहे अपने को
ईंधन बनना ही तुम्हारा कर्म है.
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टिप्पणी: डा. राम मनोहर लोहिया की मत्यु दिल्ली में गोल डाकखाने के पास, वेलिंगडन अस्पताल में 12 अक्टूबर को हुई. उनका प्रोस्टेट का ओपरेशन हुआ था जिसमें कुछ समस्या हो गयी और उनकी हालत गम्भीर हो गयी. दस दिन तक वह इन्टेसिव कैयर के विभाग में बेहोश रहे, सांस की मशीन से उन्हे सांस दी जा रही थी. बाद में उस अस्पताल का नाम डा राम मनोहर अस्पताल रखा गया. बहुत सालों बाद मैंने उसी विभाग में कुछ समय तक काम किया था.
मुझे याद है एक दिन मेरे पिता ने भी वहाँ लोहिया जी के लिए रक्तदान किया था. अपने पिता के लोहिया से गहरे रिश्ते को समझता था. जिस दिन मृत्यु हुई डा लोहिया की, उसके अगले दिन, 13 अक्टूबर 1967 को ही मेरे मामा का विवाह था, उस बारात में अपने पिता का गम्भीर चेहरा आज भी याद है मुझे. यह कविता उन्हीं दिनों में लिखी गयी थी शायद.