साहित्य में व्यक्ति और समूह का द्वंद्व

ओमप्रकाश दीपक, माध्यम, वर्ष 2, अंक 12, अप्रैल 1966

व्यक्ति और समूह के द्वंद्व का एक बड़ा ही महत्वपूर्ण पक्ष, बिशेषतः कला के संदर्भ में, अल्पसंख्यक समूह और बहुसंख्यक समूह का द्वंद्व भी होता है. साहित्य का माध्यम उसे एक अल्पसंख्यक समूह, जैसे किसी भाषा समूह, के साथ संबद्ध करता है, लेकिन सभी कलाओं की भाँती साहित्य भी सीमाओं को लाँघने की चेष्टा है, और इस कारण मूलतः सार्विक होता है. इसलिए अल्पसंख्यक समूह और बहुसंख्यक समूह के द्वंद्व का सामना लेखक को भी करना पड़ा है.

सबसे बड़ा समूह है मानव जाति. यूँ कोई दार्शनिक विवेचन करना चाहे तो प्राणिमात्र या सृष्टिमात्र को भी ले सकता है, लेकिन यहाँ उसकी जरुरत नहीं है. यहाँ समूह से मेरा तात्पर्य केवल मानव समूहों से है. मानव जाति अपनी समपूर्णता में असंगठित है, संस्थागत नहीं है. फलस्वरुप मानव जाति की धारणा केवल मानवीय गुणों और मानवीय संबधों से जुड़ी हुई रही है, जैसे तर्क, बुद्धि, करुणा जैसे गुण और मानवीय एकता के संबध, "वसुधैव कुटुंबकम्", "समान प्रसवःजातिः". ये गुण और संबध सार्विक हैं, इसलिए सर्वथा वैयक्तिक भी हैं. वैयक्तिकता और सार्विकता के इन मिले जुले तत्वों के विरुद्ध हम राज्य, जाति धर्म, वर्ग, समुदाय अथवा सभ्यता जैसे समूहों को पाते हैं,जो मानव जाति की तुलना में अल्पसंख्यक हैं, और किसी न किसी रुप में संगठित हैं. व्यक्ति मानव के साथ ये सभी समूह आपस में टकराते हैं, धर्म और राज्य, राज्य और सभ्यता, वर्ग और राज्य, आदि.

पिछली तीन शताब्दियों में इन संघर्षों में राज्य की हर जगह विजय हुई है, आज बीसवीं शताब्दी के मध्य में राज्य राष्ट्र सबसे महत्वपूर्ण और सशक्त समूह है. फलस्वरुप व्यक्ति और समूह के द्वंद्व का सबसे मुखर रुप है व्यक्ति मानव और राज्य राष्ट्र का द्वंद्व. राज्य की सीमाओं के अंदर लेकिन अपने प्रभावों में उन सीमाओं को लांघता हुआ है वर्गों और वर्णों का टकराव, काले गोरे का टकराव, किसान भूस्वामी का टकराव, मालिक मजदूर का टकराव, शुद्र द्विज का टकराव.

इन संघर्षों की पृष्ठभूमि में मनुष्य द्वारा पूर्णता की आकांक्षा और प्रयास, जिसमें स्त्री पुरुष संबंधों के नये रुपों की तलाश भी आती है, सम्पूर्ण आधुनिक साहित्य को इस संदर्भ में समझा और निरुपित किया जा सकता है, वस्तुता संपूर्ण आधुनिक कला को ही.

इन संघर्षों के फलस्वरुप कभी कभी मूर्त और अमूर्त का संबंध विच्छेद हो जाता है. यानि, राष्ट्र, या सर्वहारा या आर्य जाति या गोरी सभ्यता या ईसाई धर्म अर्थात कोई भी समूह, महान है, और जनता, यानि अलग अलग व्यक्ति, क्षुद्र हैं, मूर्ख है. यह संबंध विच्छेद अक्सर तानाशाहियों को जन्म देता रहा है. लेकिन साहित्य में यह संबंध विच्छेद एक प्रकार के अभिजात विद्रोह या अलगाव को भी जन्म देता है, जिसकी परिणति एक प्रकार के मृत्यु मोह में होती है. लेखक मानवीय गुणों से भी जुड़ा रहना चाहता है, और समूह की महानता, व्यवस्था और परंपरा से भी. लेकिन होता इसके विपरीत है. परंपरा की जड़ता, व्यवस्था का अन्याय और महानता की क्रूरता उसे समूह से जुड़ने नहीं देती, और व्यक्ति की क्षुद्रता, मूर्खता और अंधविश्वास उसे जन सामान्य से काटते हैं, और अंत में वह अपने को बिल्कुल अकेला पाता है. वह जिनके बारे में लिखना है, उनके लिए नहीं लिखता. वह संबोधित करता है अपने परिवेश के बाहर किसी अपरिभाषित समूह को, या फिर अपने जैसों के एक विशिष्ट वर्ग को. यह विशिष्ट वर्ग धीरे धीरे सिकुड़ता हुआ उसके अपने व्यक्तित्व तक सीमित रह जाता है.कभी कभी फिर वह भी नहीं रह जाता और लिखना सिर्फ एक बेबसी रह जाता है.इसकी परिणति होती है आम तौर पर मृत्य मोह में.

इस परिणति से बचने का सीधा सा एक उपाय होता है व्यक्ति या समूह में से किसी एक की सर्वोच्चता स्वीकार कर लेना, इसमें कुछ आत्म वंचना निहित हो सकती है, लेकिन यह रास्ता कुछ आसान है, क्योंकि इस तरह आदमी अकेला नहीं रह जाता.

इस प्रसंग में आंतरिकता, आध्यात्मिकता अथवा किसी प्रकार के रहस्यवाद के रुप में धर्म की ओर वापसी भी समस्या का हल प्रस्तुत करती प्रतीत होती है, क्योंकि संगठित धर्म संगठित राज्य से पराजित हो चुका है और आंतरिकता और आध्यात्मिकता सहज मानवीय गुण हैं. दिक्कत यह है कि धर्म पराजित भले ही हो गया हो, असंगठित नहीं है, और अंततः आध्यात्मिकता का मानवीय गुण भी ईसाइयत या इस्लाम या बौद्ध धर्म या हिदू धर्म के साथ जुड़ जाता है. और किसी भी सूरत में इससे लेखक की व्यक्तिगत समस्या भले ही सुलझ जाये, व्यक्ति और समूह के द्वंद्व का समाधान नहीं होता.

किसी वर्ग, जैसे सर्वहारा या वर्ग जैसे गोरे लोग के रुप में राज्य से भिन्न किसी समूह की उच्चता स्वीकार कर लेने से भी द्वंद्व का समाधान नहीं होता, क्योंकि संगठित रुप में ये समूह अपने सदस्यों के प्रति भी उतने ही अमानवीय होते हैं, जितने अन्य समूहों के प्रति. इस अमानवीयता को स्वीकार करके, अर्थात उस सीमा तक स्वयं स्थानच्युत हो कर ही लेखक इस प्रश्न का उत्तर पा सकता है कि वह किसके बारे में लिखे, किसके लिए लिखे.

व्यक्ति की सर्वोच्चता स्वीकार करते ही प्रश्न उठता है, कौन व्यक्ति ? व्यक्ति केवल मानवीय गुणों और संबंधों से बंधा नहीं होता, किसी न किसी रुप में विभिन्न समूहों से भी जुड़ा रहता है, क्यों कि समाजिकता भी एक मानवीय गुण है. और समाजिकता के माध्यम होते हैं संगठित समूह.

फिर लेखक क्या करे ? द्वंद्व की उपेक्षा कर के किसी अज्ञात मित्र को संबोधित करे ? या आने वाली पीढ़ियों के अज्ञात भविष्य को ?

ये उत्तर भी संतोष नहीं देते, क्योंकि आंतरिकता या किसी को भी संबोधित न करने से दृष्टिकोण की भाँति ये समस्या को बचा भले ही जायें, उसका कोई हल प्रस्तुत नहीं करते. उनसे भी अधिक से अधिक किसी लेखक की व्यक्तिगत समस्या ही हल हो सकती है. बल्कि जैसा हम आगे देखेंगे, यहाँ भी लेखक किसी हद तक स्थानच्युत हो जाता है. और लेखकमात्र के सामने ही भाषा के लेखक के सामने जो समस्या है, उसका कोई समाधान नहीं मिलता.

मेरा ख्याल है कि व्यक्ति और समूह के संबंधों के प्रसंग में कला का क्या स्थान है, इसे समझने की कोशिश अगर हम करें तो अपनी समस्या का समाधान खोजने में सहारता मिल सकती है. हर व्यक्ति कुछ संगठित समूहों का सदस्य होता है, इसलिए बहुधा यह कह दिया जाता है कि व्यक्ति समाज का अंग है. यह बात बिल्कुल गलत और भ्रामक है, क्योंकि "समाज" से केवल संगठित समूहों का बोध होता है, जब कि व्यक्ति का संबंध असंगठित समूहों से भी होता है. दूसरे सदस्यता और आंगिता, यह संबंध एक दूसरे थे बिल्कुल भिन्न होते हैं. व्यक्ति समाज का अंग होता, यह धारणा उतनी ही गलत है, जितनी यह कि व्यक्ति का अस्तित्व सर्वथा समाजनिरपेक्ष होता है.

पहले भी कई स्थानों पर मैं इस प्रश्न की चर्चा कर चुका हूँ. यहाँ मैं केवल इतना ही कहूँगा कि जीवन के अन्य बहुतेरे द्वैधों के समान यहाँ भी अन्योऽनयाश्रित का संबंध है, या अधिक वैज्ञानिक शब्दावली में "ध्रुवीय संबंध" (अन्योऽन्याश्रित की धारणा को व्यक्त करने वाला यह शब्द सुझाने के लिए मैं अपने मित्र श्री बद्रीनाथ तिवारी का आभारी हूँ). अर्थात व्यक्ति और समूह दोनों पर कार्य करते और एक दूसरे को प्रभावित करते हैं. यह संबंध आज बिल्कुल बिगड़ गया है, यह अलग बात है. व्यक्ति के जीवन में समूह का हस्ताक्षेप बहुत अधिक बढ़ गया है, व्यक्ति का जीवन बहुत अधिक समूह निर्देशित और समूह निरंत्रित हो गया है. यह बात हमारे युग की सभी समाज व्यवस्थाओं के लिए सच हैं, चाहे वे "व्यक्तिवादी" कहलाती हों या "समाजवादी". इसकी वृस्तृत चर्चा दिलचस्प और लाभदायक हो सकती है, लेकिन यहाँ अप्रसांगिक होगी.

हमें मतलब इस बात है कि साहित्य शायद जीवन का वह सबसे महत्वपूर्ण पक्ष है, जिसमें व्यक्ति समूह पर काम करता है और उसे प्रभावित करता है. सीमित रुप में एक ऐसा ही अन्य क्षेत्र है स्वतंत्र मतदान. दोनो ही स्थितियों में व्यक्ति वकसामाजिक दायित्व का निर्वाह करता है. यह ठीक है कि अपने आप में और अपने प्रभावों में लेखक का दायित्व अधिक व्यापक और गंभीर होता है. लेकिन दोनों ही स्थितिओं में इस दायत्व पर किसी प्रकार का भी बाह्य नियंत्रण सर्वथा अवांछनीय होता है, चाहे वह नियंत्रण राज्य, दल अथवा पूँजीपतियों जैसे किसी वर्ग का हो, अथवा अन्य किसी अप्रसांगिक तत्व का.

इस प्रकार व्यक्ति और समूह के संबंधों के प्रसंग में साहित्य पर समूह का नियंत्रण या हस्ताक्षेप उतना अनुचित और अवांछनीय है, जितना व्यक्ति द्वारा सामाजिक नियमों का उल्लंघन. कठनाई यह है कि समूह अपने नियमों के उल्लघंन को दंडित कर सकता है, लेकिन व्यक्ति केवल विद्रोह कर सकता है. जहाँ स्वतंत्र वोट का अधिकार छीन लिया जाये या सीमित कर दिया जाये, वहाँ सामान्य व्यक्ति भी संगठित या असंगठित विद्रोह ही कर सकता है. व्यक्ति और समूह के संबंध चूँकि हर जगह बिगड़े हुए हैं, व्यक्ति चूँकि कहीं भी सचमुच स्वतंत्र नहीं है, इसलिए सृजनशील लेखक, हर कलाकार मूलतः विद्रोही होता है.

इस पृष्ठभूमि से जाहिर है कि लेखक की जिम्मेदारी पूर्णतः अपने अनुभूत यथार्थ के प्रति अपने व्यक्तित्व और भावबोध के प्रति, अपनी मानवीयता के प्रति होती है. यह उसकी अपनी निष्ठा ही नहीं, उसके सामाजिक दायित्व की माँग है. किसी बाहरी दबाव से प्रभावित हो कर न मतदाता अपना दायित्व का निर्वाह कर सकता है, न लेखक. यह भी जाहिर है कि यथार्थ एक चुनौती होती है, जिसके बिना वह अपनी जिम्मेदारी नहीं निभा सकता.

अतः व्यक्ति और समूह के संबंध की स्थिति विशेष में चाहे जो भी हो, हर हालत में लेखक को इन संबंधों की समस्या का सामना अलग अलग अपने आप ही करना होगा. इसके साथ ही अपनी रचना के साथ लेखक के संबंध का प्रश्न भी जुड़ा हुआ है. लेखक के लक्ष्य से अलग, रचना की उपलब्धी का बहुधा अपना महत्व होता है. लेखक किसे संबोधित करता है, क्या कहता है, इससे भी अधिक महत्वपूर्ण है कि रचना किसे संबोधित करती है, क्या कहती है, जिस परिवेश में जन्म लेती है, उसे कहाँ तक लाँघ जाती है. किसी विशिष्ट स्तरीय पाठक को संबोधित करना आज की विशिष्ट स्थिति में किसी हद तक लेखक की मजबूरी हो सकती है, क्योंकि उसका परिवेश ही नहीं, आम तौर पर उसका व्यक्तित्व भी खँडित है, और पाठक समूह भी न केवल विशाल है वरन बँटा हुआ भी है. लेकिन हर सूरत में एक लक्ष्य हो सकता है जिसे प्राप्त करने की चेष्टा लेखक को हमेशा करनी होगी, व्यक्ति की सीमाओं से लाँघ कर बीच के अल्पसंख्यक समूहों के साथ व्यक्ति के संबंधो को समेटते हुए सार्विकता की उपलब्धी. यह काम आज बहुत ही कठिन हो गया है, लेकिन आसान तो कभी भी नहीं था.

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