ओमप्रकाश दीपक का लेखन कल्पना का हिन्दी लेखन जगत

स्मरण : ओम प्रकाश दीपक

श्रद्धांजलि, निरंजन हालदार, 1975

ओमप्रकाश दीपक से 1970 में मेरा परिचय हुआ. मेरे मित्र रामपलट भारती एक दिन उन्हें मेरे दफ्तर आनन्द बाजार पत्रिका में लाये. उस दिन ही हमने अगले दिन "वार्ता" के दफ्तर में मिलने का तय किया. मैं उन्हें अच्छी तरह से नहीं जानता था. मैंने कलकत्ता के एक हिंदी कवि नवल से उनके बारे में पूछा तो उन्होंने कहा कि "दीपक हिंदी के सर्वश्रेष्ठ गद्य लेखकों में से हैं."

दीपक नक्सलवादी आंदोलन के संदर्भ में पश्चिम बंगाल की राजनीतिक स्थिति का अध्ययन करने कलकत्ता आये थे. पहले दिन की मुलाकात में मैं ही बोलता रहा और वह सुनते रहे. दूसरे दिन जब हम मिले तो हम यह भूल गये थे हमारा कल ही परिचय हुआ था. ऐसा लगा कि हम एक दूसरे को बहुत दिनों से जानते हैं. हममे में से किसी ने एक दूसरे को आतंकित करने का प्रयत्न नहीं किया.

1971 में बांगला देश और शरणार्थियों के बारे में "दिनमान" में लिखने के सिलसिले में दीपक कलकत्ता कई बार आये और हमारी दोस्ती बढ़ी. एक दिन उन्होंने मुझसे पूछा कि क्या मैं उन्हें बांगला देश के किसी बड़े नेता से मिला सकता हूँ. मेरे लिए यह काम कठिन नहीं था. आवामी लीग के एक जिलाध्यक्ष मेरे ही साथ रह रहे थे. वह बांगला देश की मुक्ति के बाद मंत्री भी बने.

मैंने दीपक को बताया कि बांगला देश की अस्थायी सरकार के मंत्रियों को किस प्रकार चुना गया है. छोटा मंत्रिमंडल हो, इसके लिए अवामी लीग के तीन उपाध्यक्षों, नजरुल इस्लाम, मंसूर अली और खोंदकार मुश्ताक अहमद तथा बांगला देश व पाकिस्तानी अवामी लीग के मंत्रियों, ताजुद्दीन अहमद और कमरुज्जमान को ही मंत्रिमंडल में लिया गया और अवामी लीग के मंत्रि ताजुद्दीन अहमद प्रधान मंत्री बनाये गये. प्रधानमंत्री के पद के लिए बांगला देश के अधिकांश एम.एल.ए. और एम.पी. ताजुद्दीन अहमद को बनाने के पक्ष में थे, इसीलिए उन्हें प्रधानमंत्री बनाया गया.

मैं दीपक को अपने मित्र शेख अब्दुल अज़ीज़ के पास ले गया. इस मुलाकात में दीपक ही ज्यादा बात करते रहे. हमने बांगला देश के भीतर मुक्ति संग्राम की समस्याओं और भारत सरकार द्वारा बांगला देश के अस्थायी सरकार पर तरह तरह के दबाव डालने की कार्यवाहियों के बारे में बात चीत की. बातचीत से जाहिर हो गया कि दीपक बांगला देश के नेताओं के सोच को प्रभावित करने की कोशिश कर रहे थे.

मेरे जानते दीपक ही मात्र व्यक्ति थे जो तमाम शरणार्थी शिविरों में गये, उन्होंने इनके बारे में दिनमान में लिखा भी.

अंतिम बार मेरी उनसे नवंबर 1972 में दिल्ली में मुलाकात हुई. हम क्नाट प्लेस में एक चाय की दुकान में बैठे. इसके बाद वह कई बार कलकत्ता आये. उन्होंने मुझसे मिलने की कोशिश भी की पर दुर्भाग्यवश मुलाकात नहीं हो सकी. मैं उनके समाचार प्राप्त करता रहा और वार्ता, दिनमान तथा बाद में एवरीमैन्स में उनके लेख पढ़ कर जानता रहा कि वह क्या सोच रहे हैं. हम बहुत ही अल्प परिचय में मित्र बन गये लेकिन हमने कभी अपने व्यक्तिगत जीवन के बारे में एक दूसरे से बातचीत नहीं की. हम हमेशा अपने देश, हमारी आर्थिक व सामाजिक समस्याओं और समाजवादी आंदोलन की कमियों के बारे में ही बात करते रहे.

दीपक सच्चे समाजवादी थे, एक कर्त्तव्यनिष्ठ पत्रकार और एक सच्चे देश भक्त्त. मैंने उनकी मृत्यु से एक व्यक्त्तिगत दोस्त खोया पर देश ने एक महान देशभक्त्त और दबे पिछड़ों के लिए लड़ने वाला एक महान योद्धा खोया है.

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