बापू: कुछ स्मृतियाँ सियारामशरण गुप्त डा. सावित्री सिन्हा का लेखन, 1963
लगभग दस वर्ष पूर्व, नार्थ एवेन्यू में राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त के निवास स्थान पर मैं धड़कते हृदय और संकोच के साथ खड़ी थी. "साकेत" और "यशोधरा" के कवि मैथिलीशरण जी के दर्शन की कामना से मैं पहली बार उनके यहाँ गयी थी. दरवाज़ा थपथपा कर मैं उसके खुलने की प्रतीक्षा कर रही थी कि दूसरी ओर का कमरा खुला. सामने के सोफ़े पर बैठे हुए दद्दा कुछ पढ़ रहे थे और बापू उन्हीं के पास की कुर्सी पर मौन बैठे हुए थे. मैं उनकी आश्चर्यजनक सहजता और सादगी की भव्यता से अभिभूत निर्निमेष खड़ी रही गयी. अभिवादन के लिए मेरे हाथ उठे उसके पहले ही बापू हाथ जोड़ कर खड़े हो गये. मेरी समझ में नहीं आया कि इस विनम्र गरिमा को अपनी तुच्छता से कैसे सभाँलू? मैं सहसा ही राम और गाँधी के इन उपासकों के चरणों पर झुक गयी.
पहली ही बार दद्दा और बापू के स्नेह और वात्सल्यपूर्ण व्यवहार से मुझे इतना प्रोतसाहन मिला कि अपनी तुच्छता को उनके घर के महत् वातावरण के अनुपयुक्त समझते हुए भी मैं उनके दर्शन का लोभ संवरण नहीं कर पाती थी और प्रायः हर तीसरे दिन उनके यहाँ पहुँच जाती थी. एक घटना से मैं बापू के प्रत्यक्ष सम्पर्क में आयी. उनके अनुज श्री चारुशीलाचरण की पुत्रवधु भारती कुछ अस्वस्थ थी, उन्हें अपनी चिकित्सा और परीक्षण के लिए प्रायः नित्य ही एक स्थानीय अस्पताल में जाना होता था. दद्दा ने यह कार्य मुझे सौंपा. बापू भी उनके साथ आते थे. मैं भारती को ले कर अन्दर जाती और बापू बाहर गाड़ी में बैठे प्रतीक्षा करते रहते. एक दिन बापू और भारती वहाँ मुझसे पहले पहुँच गये. मैं पहुँची तो देखा बापू की साँस फ़ूल रही है और वह अटक अटक कर, हाँफ हाँफ कर ड्यूटी नर्स से कुछ बात कर रहे हैं. मेरे तो प्राण सूख गये. सार्वजनिक अस्पतालों की नर्सों के लिए उच्चता का मापदँड वेशभूषा और अंग्रेजियत होती है, कहीं बापू की सरलता और भारतीयता के कारण वह उनके साथ कोई गलत व्यवहार न कर दे, इस भय से भागती हुई उनके पास पहुँची, नर्स को बताया कि वह कौन हैं. अंग्रेजी में बातचीत करके अपना प्रभाव डाला. बापू ने जेब से निकाल कर डा. सुशीला नैयर का पत्र दिखाया जो उन्होंने अस्पताल की संरक्षिका के नाम लिखा था. मेरी अंग्रेजी बोलने की सामर्थ्य और डा. सुशीला नैयर के पत्र को देख कर नर्स की भौहों के बल कुछ कम हुए. मेरी जान में जान आयी और मैंने सोचा कि न जाने कब तक भारत के मनीषी, साहित्यकार, दार्शनिक और कवि को राजनीतिक नेताओं की पकड़ाई हुई लकड़ी के सहारे चलना पड़ेगा, न जाने कब तक केवल हिन्दी बोलने के अपराध करने वाले महान् साहित्यकारों के अपमान की आशंका बनी रहेगी. पर बापू पर इस घटना का कोई प्रभाव नहीं पड़ा, उनकी सहज मुस्कान में कहीं वक्रता नहीं आयी. सतत् शारीरिक पीड़ा से धुँधले नेत्रों की चमक और स्निग्धता वैसी ही बनी रही.
बापू दसरों की प्रशंसा करते हुए तिल का ताड़ बना देते थे. कभी कभी उनके मुँह से अपनी प्रशंसा सुनने वालों को बड़े संकोच में पड़ जाना पड़ता था. एक ही घटना को वह अनेक व्यक्तियों से अनेक बार दोहराते थे. मुझे यह सौभाग्य अनाधिकार ही प्राप्त हो गया. एक दिन भारती डाक्टर के कमरे में थी, मैं और बापू बाहर प्रतीक्षा कर रहे थे. उन्होंने मुझसे पूछा, "आप कौन सी कक्षाओं को पढ़ाती हैं?"
मैंने उत्तर दिया, "एम.ए. और बी.ए. को."
बापू आश्चर्य में आकर सहजता से बोले, "मैं तो समझता था, आप अध्यापिका हैं, प्राइमरी और मिडिल कक्षाओं को पढ़ाती होंगी."
उनकी सरलता से मैं गदगद् हो गयी.
किसी भी इण्टरव्यू बोर्ड का यह रिमार्क मुझे विश्वविद्यालय तो क्या किसी कालेज की नौकरी के उपयुक्त भी न ठहराता, लेकिन बापू के मुँह से अपने व्यक्तित्व का इस मूल्यांकन से मैं अपनी ही दृष्टि में ऊँची हो गयी. गलत या सही, यह नहीं कह सकती.
कुछ ही दिनों बाद उन्होंने मुस्कराते हुए पूछा, "आप डाक्टर भी हैं?" मैंने संकोच से सिर हिला कर उत्तर दिया, "हाँ."
"आप ने मुझे उस दिन क्यों नहीं बताया था?"
"आप ने मुझसे पूछा कहाँ था बापू?" मैंने कहा.
और उस दिन से मेरी "आत्मगोप शक्ति" की जो अतिश्योक्तिपूर्ण प्रशंसा बापू करते, उससे उनकी महानता, सरलता और ऋजुता के अनुभव से मैं मन ही मन विभोर हो उठती.
एक दिन की बात है, बापू अपने किसी मित्र की गाड़ी से विश्वविद्यालय आये हुए थे. ड्राइवर को गाड़ी लौटा कर ले जाना था. बापू गाड़ी से उतरे, हाथ जोड़ कर ड्राइवर से बोले, "अच्छा नमस्ते ड्राइवर जी. आप को बड़ा कष्ट हुआ." मैं उनका मुँह देखती रह गयी. सलाम देने का आदी ड्राइवर आश्चर्यचकित उनकी ओर देखता रह गया. उसे भी कदाचित यह पता नहीं होगा कि उसके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने वाला यह सरस्वती का वरद पुत्र है, हिन्दी का मूर्धन्य साहित्यकार है, मानवावाद को अपने व्यक्तित्व में उतार लेने वाला साधक और द्रष्टा है. उसका समाधान तो शायद बापू के गले में पड़ी हुई तुलसी की माला, खद्दर के मोटे करते, सूखे बिखरे सफेद बालों और मोटे चमड़े के जूतों ने किया होगा.
इस बार जब बापू दिल्ली आये, उनका स्वास्थ्य आरम्भ से ही ठीक नहीं था. वह प्रायः नित्य ही अपने अस्वस्थ होने की बात करते थे. एक दिन वह कुछ स्वस्थ थे. उन्होंने मुझसे कहा, "गोपिका पूरी हो गयी है, आप इसकी पाण्डूलिपी ले जाईये और पढ़ कर बताईये इसमें कुछ दोष तो नहीं है?"
"बापू! आप क्या कहते हैं. मैं आप की कृति में दोष निकालने योग्य हूँ?"
"नहीं नहीं, मेरा मतलब है पढ़ो और बताओ तुम्हें कैसी लगी? और क्यों? उन्मुक्त की अहिन्सा तो आप को पसंद नहीं है न, हो सकता है इसमें भी कुछ ऐसी बात हो, जिससे आप सहमत न हों."
मैं "गोपिका" की पाण्डूलिपि ले आयी, पर उसके बारे में बापू से कह सकूँ कि उनकी रचना हिन्दी के लिए नयी घटना है, ऐसा अवसर नहीं आ पाया. तीसरे ही दिन बापू अस्पताल चले गये. तीन दिन तक उनकी अवस्था बड़ी चिंताजनक रही. वह आक्सीजन के सहारे साँस ले रहे थे, परन्तु थे चेतनावस्था में. उनकी पीड़ा और वेदना देखी नहीं जाती थी. इन तीन दिनों में दद्दा की चिन्ताग्रस्त मुद्रा देख कर बड़ी चिन्ता होती थी. ऐसा लगता था कि कहीं वह भी बीमार न पड़ जायें. उनके गम्भीर धैर्य के आवरण में आवेष्टित व्यथा को समझ कर जान पड़ता था, लक्ष्मण के शक्तिबाण लगने पर राम की भी यही दशा रही होगी. चौथे दिन बापू के मुख पर असधारण शान्ति और प्रसन्नता थी. जैसे ही मैं उनके पास गयी, अपने नेत्रों में सहज स्नेह भर के उन्होंने पूछा, "गोपिका पढ़ी?" लेकिन मैंने जो उत्तर दिया उसे न वह समझ सके, न सुन सके. मैं कुछ और बोलती, वह कुछ और सुनते. मुझे बड़ी निराशा हुई. तब तक सबका यही विश्वास था कि तेज दवाओं के कारण बापू की श्रवण शक्ति अस्थायी रूप से समाप्त हो गयी है. डाक्टर भी पूर्ण रूप से आश्वस्त थे कि उनकी हालत सुधर रही है, उन्होंने दद्दा को चिरगाँव जाने की अनुमति दे दी. मैं लौट कर दरवाजे तक आयी कि उन्होंने मुझे पुकारा और पूछा, "दद्दा गये?" मैंने कहा, "नहीं तो, वह कल शाम तक जायेंगे. आप की तबियत तो अब अच्छी है?" उन्होंने दो बार कुछ अनर्गल प्रलाप किया, मैं चौंकी. कहीं उनके मस्तिष्क में विकार तो नहीं आ गया है? उनकी आवाज में भी काफी तेजी थी. कक्का और मैं दोनो एक साथ बोल उठे, "बापू आप यह क्या कह रहे हैं?"
उन्होंने शान्त हो कर बुण्देलखँडी में कहा, "पता नहीं, मेरी समझ में नहीं आता मैं क्या बोलता हूँ."
उसके बाद वह विकार कान और मस्तिष्क पर नहीं, समस्त शरीर पर छा गया. कई बार बापू उठ कर कमरे से निकलने लगते थे. 27 मार्च के अपराह्न में उन्होंने कहा, "डा. नगेन्द्र को फोन करके बुला दो." लेकिन डा. नगेन्द्र के पहुँचने तक वह अंतिम तन्द्रा में अचेत पड़े थे, कुछ कहने सुनने की शक्ति उनमें नहीं रह गयी थी, कभी कभी "श्री राम" और "दद्दा" उनके मुँह से मुश्किल से निकलता था. "बापू" पुकारने पर उनकी पथरायी हुई आँखें थोड़ी खुलती और फ़िर बन्द हो जातीं. 28 मार्च को मैं कई घँटे उनके पास रही. नाक में आक्सिजन की नली सतत् रूप से लगी थी, फलों का रस और ग्लूकोज नालियों से चढ़ाया जा रहा था, डाक्टर अंतिम क्षण तक आशावान थे. बापू ने एक बार आँख खोली. मैं और गिरधारी, उनका पुराना सेवक, समाने खड़े थे. उन्होंने गिरधारी को ऐसे नेत्रों से देखा जैसे कोई विदा लेता हुआ पिता पुत्र को देख रहा हो, उनकी साँस ऊधर्वगति से चल रही थी. मैं मृत्यु का यह रूप एक बार पहले देख चुकी थी, इसलिए मेरे मन की शंका बढ़ती ही जा रही थी. बापू की साँस धीरे धीरे कम होती गयी, आँखौं की चेतना लुप्त होती गयी, पर कोई यह विश्वास करने को तैयार नहीं था कि बापू जा रहे हैं.
दद्दा के घर में बापू की गीता का नियमित रूप से पारायण होता है. स्वजन, परिज, मित्र, नौकर चाकर सब एक साथ बैठे उसका पाठ करते हैं. आज भी चिरगाँव में दद्दा का घर, बापू की दिवंगत आत्मा की शान्ति के लिए, बापू की ही गीता के स्वर से गूँज रहा होगाः
सर्व काम परित्यागी विचरे नर निःस्पृह,
अंहता ममता मुक्त, पाता परम शान्ति सो.
ब्राह्मीस्थिति यही पार्थ, इसे पाके न मोह है,
टिकती अंत में भी है ब्रह्मनिर्वाण सदायिनी.
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टिप्पणीः यह आलेख डा. सावित्री सिन्हा के आलेख संग्रह "तुला और तारे", (नेशनल पब्लिशिंग हाउस दिल्ली, 1966) से है. यह आलेख शायद अप्रैल 1993 में राष्ट्रकवि मैथिलीचरण गुप्त के अनुज "बापू" यानि सियारामशरण गुप्त के देहांत के बाद लिखा गया था.