यादें - : मधु सिन्हा कामथ डा. सावित्री सिन्हा का लेखन
टिप्पणी: सुश्री मधु सिन्हा कामथ (१९४७-२०१८) डॉ. सावित्री सिन्हा की छोटी बेटी थीं। सन् २०१८ में देहावसान से पूर्व उन्होंने अपने बचपन और परिवार के बारे में कुछ संस्मरण लिखे थे जिनमें डॉ. सावित्री सिन्हा के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी मिलती है। वही संस्मरण यहाँ प्रस्तुत हैं।
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मम्मी से सबसॆ अहम बात जो मैंने सीखी वह थी कि 'रोना नहीं'। बोर्ड एक्ज़ाम के समय मैं अपनी क्लास-मेट मधु गुप्ता के साथ मैथ्स पढ़ने जाती थी। वहाँ से वापस आते समय उसके कुत्ते ने मुझे टाँग में काट लिया। कुत्ते के काटे का अस्पताल में इलाज केवल हिंदुराव अस्पताल में होता था। इन्जैक्शन पेट में लगता था। आठ इंच लम्बी सीरिन्ज देख कर मैं रोने लगी। "रोना नहीं बेटा, हिम्मत रखो।"इन्जैक्शन लगवा कर जब सामने से दवाई लेने गये तो देखा करीब एक साल के बच्चे का पूरा गाल कुत्ते के काटने से लटक रहा था। मैं फ़िर रोने लगी। "रोने से क्या बच्चा ठीक हो जायेगा? उसे तो दर्द हो ही रहा होगा, तुम तो हिम्मत रखो।"
मम्मी की चार साल लम्बी लड़ाई कैंसर के साथ, हमने मिल कर लड़ी। १९६९ में मम्मी को युनिवर्सिटी की ओर से फ्लैट मिल गया। आर्टस फैकल्टी से घर तक वह पैदल ही जाती थीं। माल रोड वाले पैट्रोल पम्प के सामने जो इंटरनैशनल स्टूडैंटस हाऊज़ है, उसके बगल में हम रहते थे।
मम्मी को यह उचित नहीं लगा कि वह हैड आफ द डिपार्टमैंट के पद पर बनी रहें तो उन्होंने अपना त्यागपत्र दे दिया। जिन्हें उनसे जो भी काम होता था, वह घर पर ही पहुँचा देते थे।
एक समय ऐसा भी आया जब मम्मी की आँखों में रह-रह के आँसू उमड़ आते थे। तब हम उन्हें गा कर मनाते थे, “रोना कभी नहीं रोना, चाहे टूट जाये कोई खिलौना, खिलौना। सोना चुपके से सोना, चाहे टूट जाये सपना सलोना।" मम्मी ने कभी आँखों से आँसू छलकने नहीं दिये, पहले ही मुस्कुरा देती थीं।
मम्मी के पहले आपरेशन के समय, जांघ से चमड़ी ले कर चैस्ट पर ग्राफ्टिंग की गयी थी। कराहती अवश्य थीं, पेन-किलर्स पर जी रही थीं, लेकिन रोई नहीं।
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अपने परिचय को आगे बढ़ाते हुए मैं बताना चाहूँगी कि मैं कौन हूँ और यह क्यों लिख रही हूँ। मंजी अब भी यही कहती हैं कि किसी संकट के समय उनके हाथ-पाँव फूल जाते हैं, पर मुझे हमेशा सराहती हैं, “तू तो मम्मी की बेटी है न, कभी रोती नहीं।"
मेरा जन्म ४ सितम्बर १९४७ कॊ लेडी हार्डिंग अस्पताल, पँचकुईयाँ रोड में हुआ था। उन दिनों हम पहाड़गंज में रहते थे। विभाजन के बाद दंगे, फसाद, मार काट बहुत हो रहे थे। मेरी बड़ी बहन जिन्हें हम प्यार से मंजी कहते हैं, पाँच साल की थीं। वह दादी अम्मा और हमारे विश्वासनीय सहायक चतुर सिंह के साथ घर मेम ही थी। पहाड़गंज में जहाँ-तहाँ आग लगी हुई थी। मम्मी, पापा और नवजात मैं, अस्पताल में फँसे हुए थे। घर जाते तो कैसे।
कमरे की खिड़की से आग की लपटें दिख रहीं थीं। किसी तरह हिम्मत करके, एक हाथ में छतरी, एक में कपड़ों की पेटी, और गोदी में मुझे लिए, वे झुलसती सड़क पर निकल ही पड़े। घर से अस्पताल लगभग पंद्रह मिनट की दूरी पर था। जहाँ-तहाँ आग की लपटें नज़र आ रही थीं, पर हमारी गली में सब शांत था, तभी चैन की साँस ली।
जब इस घटना के बारे में पहली बार सुना था तॊ रौंगटे खड़े हो गये थे। अब भी वह बात कभी उठती है तो वही असर होता है।
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हमने अपने नाना और दादा को कभी नहीं देखा। पापा जब सात-आठ साल के थे तो हमारे दादा ने सन्यास ले लिया था। पापा और दादी अम्मा ने सारी उम्र अपने जीवन के बारे में कुछ नहीं कहा। बस यह मालूम है कि बड़े हो कर, अपने कॉलेज की फ़ीस भरने के लिए वह ट्यूशन लेते थे। साथ-साथ जर्निस्म में डिप्लोमा भी किया।
नाना इलाहाबाद के आर्य समाज के प्रमुख कार्यकर्ता थे। जिस स्कूल में मम्मी पढ़ती थीं, वह उसके सचिव भी थे। पूरे ज़मींदार परिवार के इकलौते पुत्र होने के नाते घर का एक हिस्सा उनके नाम था। ऐसा उन दिनों चलन था।
नाना की इच्छा थी कि वह मम्मी को गुरुकुल भेजेंगे। कई वैदिक मंत्र और भजन उन्होंने मम्मी को रटवा रखे थे। जब भी कोई मेहमान घर आता तो वह तोते की तरह रटे हुए मंत्र और भजन सुनाने लगतीं। परिवार के बड़े सदस्य बहुत दबाव डाल रहे थे कि लड़की को स्कूल भेजना बन्द करो पर नाना पर कोई असर नहीं हुआ।
अचानक नाना का देहांत हो गया। मम्मी सात साल की थीं, हमारी मौसी चार साल की और मामा एक साल के। मामा के जन्म के समय नानी के दायें हाथ में लकवा मार गया था। तीन बच्चों की ज़िम्मेदारी, अपने लकवा-ग्रस्त हाथ और स्वयं को बायें हाथ से लिखने के लिए कठिन अभ्यास करना, उन्हें परास्त न कर पाया।
जिस स्कूल में मम्मी पढ़ती थीं वहीं नानी ने नौकरी कर ली। घर का एक हिस्सा अवश्य अपना था, ज़मींदार परिवार की एकलौती बहू होने के नाते कोई कमी नहीं थी परन्तु परिवार के अन्य सदस्य नानी पर दबाव डालते रहे कि लड़की की पढ़ाई बन्द करो। हमारी दृढ़-निश्चय नानी टस से मस नहीं हुईं। होनी का खेल देखिये, मम्मी को वज़ीफा मिल गया और पढ़ाई पूरी करने का मौका।
मम्मी १८ साल की थीं जब पापा के रिश्तेदारों की ओर शादी का प्रस्ताव आया। नानी ने उनसे कहा कि उनके पास देने को कुछ नहीं है, बस उनकी बेटी जितना पढ़ना चाहे, उसे पढ़ने दें। पापा ने उन्हें आश्वासन दिया कि ऐसा ही होगा और ऐसा ही हुआ। उन्होंने मम्मी से कहा कि बी.ए. करो, एम.ए. करो और वह करती चली गयीं।
मम्मी कॉलेज साईकल से जाती थीं। उन्होंने पापा से कहा कि आते-जाते लोग फब्तियाँ कसते हैं, तो पापा ने कहा "कसने दो, तुम्हें क्या?” मम्मी कहती थीं की पापा की बदौलत उन्होंने बी.ए. किया, एम.ए. भी किया, नहीं तो वे आराम से घर पर बैठतीं।
शादी उपरांत पापा ने मम्मी को पार्कर का फ़ाउनटेन पैन उपहार में दिया था, यह पूछते हुए कि पर्चे कैसे हुए थे? पर्चे तो अच्छे होने ही थे। मम्मी गर्वपूर्ण मुस्कान के साथ कहती थीं कि उनकी हर सफलता का श्रेय वह पापा को देती हैं। अपनी पहली पुस्तक, ‘मुट्ठी में बन्द आकाश' उन्होंने पापा को समर्पित की थी।
पापा भारतीय सरकार की सर्विस में थे। पोस्ट एंड टेलीग्राफ टिपार्टमैंट में नियुक्ति थी उनकी। मंजी का जन्म लखनऊ में ८ सितम्बर १९४२ को हुआ। वे दो या तीन साल की थीं जब पापा का तबादला दिल्ली हो गया।
तब तक कॉलेज में हिंदी केवल एक विषय के रूप में पढ़ाई जाती थी। बी.ए. ॲानर्स हिन्दी के कोर्स का प्रारम्भ मम्मी के लेकचरर नियुक्ति से हुआ। मम्मी की पी.एच.डी. पूरी होने तक हिन्दी में एम.ए. भी प्रारम्भ हो गया। सब पोस्ट ग्रेजुएट कक्षाएँ आर्टस फैकल्टी में होती थीं। मम्मी को रीडर की पदवृद्धि मिली और वह इन्द्रप्रस्थ कॉलेज से निकल कर आर्टस फैकल्टी जाने लगीं। कुछ वर्ष रीडर की तरह कार्यरत थीं जब उन्हें हिन्दी डिपार्टमैंट की हैड बनाया गया। तभी उन्हें प्रोफैसर की उपाधि भी मिली।
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अपने पी.एच.डी. के शोधकार्य के लिए मम्मी ने 'मध्यकालीन हिंदी कवयित्रियाँ' का विषय चुना था। उन्हें पी.एच.डी. की उपाधि १९५१ में प्राप्त हुई। उसी वर्ष हमारे छोटे भाई अनु का जन्म हुआ। तब मंजी ९ वर्ष की थी और मैं चार की। मम्मी, मंजी और मैं डिलिवरी के लिए नानी के पास इलाहाबाद चले गये थे। पापा, दादी अम्मा और चतुर सिंह पहाड़ गंज में ही रहे।
अनु का जन्म डफरिन अस्पताल में हुआ था। मैं चार साल की थी लेकिन मुझे याद है कि मम्मी को साफ़रानी रंग के स्ट्रैचर पर बैरक जैसे कमरे में लाये थे। अनु के दोनों हाथों और पैरों पर ढीली-ढीली पट्टियाँ बँधी थीं। बहुत प्यारा लग रहा था। मंजी और मैं बस अस्पताल में कबूतर उड़ाते रहते थे। असंख्य कबूतर थे वहाँ। उनके बीच में भागने में बहुत मज़ा आता था।
आप सोच रहे होंगे कि नौ साल की मंजी ने दो-तीन महीने स्कूल कैसे मिस किया। आप हैरान होंगे कि मंजी ने न केवल एक दूसरे स्कूल में दाखिला लिया बल्कि उन्हें दो साल का डबल प्रमोशन भी मिला। मम्मी-पापा को कोई भी ढंग का स्कूल नहीं मिल रहा था। पहाड़गंज में उनके पहले स्कूल का नाम लड्डूघाटी था।
इलाहाबाद में नानी के घर के सामने गुड़िया तालाब था जहाँ बतखें तैरती दिखती थीं। कमरे में छत पर सफेद झालर वाला कपड़े का पंखा था जिसे रस्सी से खींचना होता था। बहुत मज़ा आता था। फ़िर पापा आ गये हमें वापस ले जाने। अनु का नाम अनिल रखा गया था।
मेरा ऐसा विचार है कि मैं बहुत भोली-भाली रही होंगी। मम्मी जब पी.एच.डी. के लिए शोधकार्य कर रहीं थीं, मैं उनका ध्यान बंटाना नहीं चाहती थी। फ़िर भी बीच-बीच में उनसे पूछती थी कि मम्मी मैं आ जाऊँ? मंजी से पुष्टि की तो उन्होंने भी यही कहा कि हाँ मैं पूछती थी।
मम्मी ने राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर पर भी शोध किया और किताब लिखी। तब वह राज्यसभा के मैम्बर भी थे। दिनकर जी के साथ मम्मी का काफ़ी सम्पर्क था। काफ़ी विचार-विमर्श होता था। 'युगचारण दिनकर' में युगचारण उपनाम मम्मी का दिया हुआ है, इंग्लिश में 'बार्ड' कहते हैं। अंतत: मम्मी दिनकर जी पर इकलौती विषेशज्ञ बन गयीं।
युनिवर्सिटी की अपनी ज़िम्मेदारियों में उन्हें अत्यंत व्यस्तता रही। १९६९ में मम्मी को युनिवर्सिटी की ओर से फ्लैट मिल गया। हुआ यूँ कि हमने दिनकर जी को एक दिन दोपहर के लिए आमंत्रित किया। मुझे हमेशा से खाना पकाने, खिलाने का शौक है। हमें मालूम नहीं था कि वह शाकाहारी हैं या माँसाहारी। फ़िर भी मैंने बटर-चिकन बनाया पर परोसा नहीं। मैं रसोई में खड़ी सोच रही थी कि बटर-चिकन का क्या करूँ कि मेरे पीछे से आवाज़ आई, “और यह बटर-चिकन किसे खिलाओगी?” मुड़ के देखा तॊ छ: फुट दो इंच लम्बे दिनकर जी चकाचक सफ़ेद धोती कुर्ता में मुस्कुरा रहे थे। अपने हाथों से बटर-चिकन का डोंगा उठा कर वे खाने की मेज़ पर ले गये और खूब छक के खाया।
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किस्से को आगे बढ़ाने के लिए मुझे ढाई दशक पीछे जाना होगा। १९५२ में मुझे पापा मथुरा रोड़ स्थित दिल्ली पब्लिक स्कूल में दाखिले के लिए ले गये। पूरा स्कूल तम्बुओं में था पर सीनियर केम्ब्रिज था, जो उस समय बहुत बड़ी बात थी। दिल्ली के प्रसिद्ध क्नाट प्लेस के प्रसिद्ध वैंगर्ज़ में हम कभी-कभी जाते थे। वहाँ के प्लम केक बहुत स्वादिष्ट होते थे। तो पापा मेरा दाखिला करा के, मुझे नर्सरी की टीचर मिस बोस के पास छोड़ कर चले गये। ब्रेक के समय जब मैंने अपना लंच बॉक्स खोला तो उसमें इतना बड़ा प्लम केक देख कर मैं फ़ूली नहीं समाई। छुट्टी से कुछ समय पहले हमे तामचीनी के मग्ज़ में गरमागरम ओवल्टीन पीने को मिली। फ़िर हम सो गये। प्लम केक में मम्मी का मुस्कराता चेहरा ज़रूर दिखा होगा।
सब बच्चों की युनिफोर्म पर उनका बस नम्बर और स्टॉप एक रुमाल पर पिन किये हुए लिखे थे। मेरा बस नम्बर एक था। बस में बच्चों का उत्साह देखने लायक था। उन दिनों मम्मी इन्दरप्रस्थ कॉलेज में लेक्चरर थीं और हम यमुना नदी को फेस करते हुए "वुडलैंडज़" में रहते थे। मथुरा रोड से घर तक का सफ़र पता ही नहीं चलता था कब बीत जाता था। हर चौराहे पर ड्यूटी देते पुलिसवाले को चिल्ला कर कहते थे, “संतरी जी राम राम", और खूब हँसते थे।
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लौट कर तॊ वापस आना है न! मंजी का विवाह २३ जनवरी १९६७ को हुआ। मम्मी का बहुत समय आर्टस फैकल्टी में अकैडिमिक काऊन्सिल और सलेक्शन कमेटी की मीटिन्गज़ में, शोध कार्य में व्यस्त छात्रों-छात्राओं को परामर्श देने में बीतता था। उस सबके बीच उनकी छाती के बायें हिस्से में गांठ बन रही थी, वह उपेक्षाग्रस्त होती रही। ॲापरेशन की नौबत आ गयी।
यहां दोहराना चाहूँगी कि मैस्टेक्टमी के बाद छाती पर ग्राफ्टिंग के लिए जांघ से चमड़ी ली गयी थी। मम्मी दर्द से कराहती थीं, पेन किलर्ज़ पर जी रही थीं, पर रोई नहीं। यह ॲापरेशन ४ नवम्बर १९६८ को हुआ। मम्मी वाहवाही की हकदार थीं कि ॲापरेशन के डेढ़ महीने बाद ही वे न केवल युनिवर्सिटी का कार्यभार सम्भालने लगीं, बल्कि ड्राईविंग भी फ़िर से शुरु कर दी।
मम्मी के साथ हमने मौज-मस्ती भी खूब की। वे हमें लम्बी ड्राईवज़ पर ले जाती थीं और कश्मीरी गेट के कार्ल्टन रैस्तरां में ज्यूक बॉक्स में गाने सुनवाने भी। सुजाता, अनाड़ी और मेम दीदी जैसी उत्तम फ़िल्में हमने सपरिवार देखीं।
दादी अम्मा कहीं आती-जाती नहीं थीं लेकिन चतुर सिंह हमेशा उनकी देखभाल करता था। नाना-नानी की तरह उन्होंने भी कभी मूर्ति पूजा नहीं की। केवल तुलसीदास की रामचरितमानस पढ़ती थीं। सर्दियों में रजाई में घुसे, हम तीनों उसी में से उनसे कहानियाँ भी सुनते थे।
मम्मी के व्यक्तित्व से हमें बहुत प्रॆरणा मिती थी। उनकी ठहाकेदार हँसी से कौन परीचित नहीं था। मंजी बताती हैं कि एक दिन युनिवर्सिटी कॉफ़ी हाऊज़ में उन्हें हँसता देख किसी ने पूछा, “आप क्या सावित्री सिन्हा की बेटी हैं?” मेरे अगले वाक्य से आप के चेहरे पर मुस्कान ज़रूर आयेगी। मेरी ११ वर्षीय नातिन आरी यानि अद्रिजा भी वैसे ही हँसती हे, ठहाका मार के।
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मम्मी को १९७०-७१ में दोबारा ॲापरेशन की ज़रूरत आई। पहले ॲापरेशन के बाद से ही महाजन नर्सिंग होम से गोपाल अपनी साइकल पर रोज़ ड्रैसिंग के लिए आता था। उस दिन जब वह ड्रैसिंग के लिए तो ब्लीडिंग रुक नहीं रही थी। डॉ. महाजन कैनेडा गये हुए थे।
हमारी मौसी, मौसा, मामा, मामी, सब वहीं थे। उन्होंने मम्मी को हिंदुराव अस्पताल में दाखिल करा दिया।
उस पूरे साल दिल्ली युनिवर्सिटी में किसी न किसी वजह से हड़तालें चल रही थीं। मंजी के पति का तबादला कानपुर हो गया था। तो मंजी भी कानपुर चली गयीं। उनका बड़ा बेटा मुकुल करीब दो-तीन साल का रहा होगा।
मम्मी की गंभीर हालत देखते हुए मंजी मुकुल को अपने ससुराल में लखनऊ छोड़ आयी, वहाँ सास, ससुर, ननदें सब थे, एक देवर भी। मम्मी मुकुल से मिलना चाहती थीं। मंजी के पति तुरन्त लखनऊ के लिए निकल पड़े। “मम्मी, मुकुल कल सुबह आ रहा है", यह सुन कर वह बहुत प्रसन्न लगीं।
उसी वर्ष २ फरवरी को मम्मी का ५०वाँ जन्मदिन था। २५ अगस्त १९७२ को रात के करीब बारह बजे वे हमें छोड़ कर चली गयीं। इतने साहसपूर्ण चार साल कैंसर से लड़ते हुए, इतनी सकारात्मक ऊर्जा।
पापा को अपने ५८वें जन्मदिन पर २५ जून को रिटायर होना था। उन्हें पदवृद्धि के साथ एक्सटैंशन का ॲाफर मिला था, जिसे उन्होंने स्वीकारा नहीं। उन्होंने रिटायर होना चुना क्योंकि वह अपना पूरा समय मम्मी के साथ बिताना चाहते थे। दोनों को एक-दूसरे का पूरा सात केवल दो महीने ही मिल पाया। सही मायने में एक दूसरे के पूरक थे हमारे मम्मी-पापा।
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