नयी पीढ़ी : दो ऐंगलों से डा. सावित्री सिन्हा का लेखन
"कहानी : नयी कहानी" विषय पर "मनीषा" द्वारा आयोजित एक परिसंवाद के अनेक चित्र मन में उतर रहे थे, नयी पीढ़ी और पुरानी पीढ़ी के अपेक्षित सम्बन्धों के विषय में कही नामवर जी की सूझबूझ पूर्ण बातें कान में गूँज रही थीं. अवचेतन मन जैसे उस प्रश्न से उलझा रहना चाहता था, कि नये और पुराने का सम्बन्ध मुझे अपने घर में ही उभरता दिखायी देने लगा. बाग में फ़ूले हुए सूरजमुखी के फ़ूलों से आकर्षित होकर मैं उन्हें तोड़ लाती हूँ, बड़े चाव के साथ तरतीब से फ़ूलदान में सजा कर मैण्टलपीस पर रख देती हूँ. मुझे लगता है कि फ़ूलों की महक और सुंदरता से बैठक की शोभा बढ़ गयी है. कालेज से लौट मेरी बड़ी लड़की आती है, फ़ूलों को आलोचनात्मक निगाहों से देखती है, फ़ूलदान उठा कर खाने की मेज़ पर पिछले कमरे में रखती है, और दो सूरजमुखी के फ़ूल उसमें से निकाल कर उन्हें कैक्टस के साथ सजा कर बैठक में रख देती है, मैं देखती हूँ मेरी व्यवस्था गौण पड़ गयी है. मैं आगे के कमरे से पीछे के कमरे में चली गयीं हूँ, पर मुझे प्रसन्नता होती है इसलिए कि मेरी व्यवस्था का स्थान मेरी बेटी की व्यवस्था ने ले लिया है. मेरी छोटी लड़की स्कूल से आती है, कैक्टस के साथ सूरजमुखी देख कर मुँह बिचकाती है और चाहती है कि केवल बीच की मेज़ पर भिन्न भिन्न प्रकार के कैक्टस ही रखे जायें. दोनों में बहस छिड़ती है और कुछ ही क्षणों में कैक्टस, फ़ूल, गमले, फ़ूलदान फर्श पर बिखरे दिखायी देते हैं, दोनो खाना नहीं खाती,एक दूसरे पर क्रुद्ध हैं. फ़ूलों की व्यवस्था पीछे की मेज़ पर है, कैक्टस और फ़ूल के सामजस्य के प्रश्न पर ड्राइंगरूम की व्यवस्था बिगड़ गयी है, पुरानी और नयी, तथा नयी और नयी का संघर्ष मेरे सामने साकार हो जाता है - परिसंवाद के अनेक दृष्य फ़िर मेरी आँखों के सामने आ जाते हैं - मेरी इच्छा होती है कि श्रीकांत और निर्मल वर्मा के प्रति जैनेन्द्र का वही अपनत्व का भाव हो जो मेरा, अपने घर का, नयी पीढ़ी के प्रति है. उनके आपसी संघर्षों का भी मैं वही परिणाम देखना चाहती हूँ, जो मेरे घर की नयी पीढ़ी की लड़ाई के थोड़ी देर बाद होता है.
मैं मुग्ध भाव और एक प्रच्छन सन्तोष से यह सब देखती हूँ, नयी पीढ़ी समय के साथ है, नए परिवेश की विशेषताओं से उसका परिचय है और उनके निर्वाह के लिए उनमें जागरूकता है, यह जान कर मैं खुश होती हूँ. पर इस स्थिति की दूसरी सम्भावनाएँ भी हैं. सूरजमुखी के फ़ूल यदि पीछे के कमरे में न रखे जा कर तोड़ मरोड़ कर नाली या कूड़े में डाल दिये जाते तो? तब क्या मेरा "स्व" निरपेक्ष रह सकता? अपने मुल्यों की अवमानना क्या मैं इतनी तटस्थता से सह लेती? परन्तु मेरे सामने एक दूसरी घटना आ जाती है और मुझे विश्वास हो जाता है कि नयी दृष्टि का आविर्भाव नये परिवेश और नये सन्दर्भों में होता है, परम्परा और पुराने का खण्डन मण्डन उसकी मूल प्रेरणा नहीं हुआ करती. "नया" स्वभावतः "पुराने" को अपने में लपेटता चलता है. मैं बाहर जाने को तैयार हूँ. सामने कैक्टस के काँटों के बीच छोटे छोटे सिन्दूरी फ़ूल मेरी दृष्टि आकर्षित करते हैं. उनमें से दो फ़ूल तोड़ कर मैं जूड़े में लगा लेती हूँ. मेरी दोनो लड़कियाँ दुपट्टे का छोर मुँह में रख कर खिलखिलाने लगती हैं. मुझे उनकी अकारण हँसी पर भी क्रोध आता है. थोड़ी देर में अपने को संयत करके मेरी बड़ी लड़की मंजु कहती है, "ममी प्लीज यह फ़ूल निकाल दीजिये." मैं कहती हूँ, "नहीं मुझे ये फ़ूल अच्छे लगते हैं." वह हँसती है, दोनो हँसती हैं और फ़िर छोटी लड़की ज़िद्द करके कहती है, "निकालिए यह फ़ूल ममी. आपको कुछ पता तो है नहीं. सब लोग आप की हँसी उड़ायेंगे." मैं अब उनकी बात को गम्भीरता से लेती हूँ, पूछती हूँ आखिर बात क्या है? छोटी बेटी अपने छोटे भाई से कहती है, "ममी को इस फ़ूल का नाम बता." भाई निःसंकोच बताता है,"किस मी कुइक." मैं नयी पीढ़ी की इस नयी अर्थवत्ता को जैसे स्वीकार करती हूँ. मुस्कुराती हुई जूड़े से फ़ूल निकाल देती हूँ यह जानते हुए भी कि जहाँ जा रही हूँ वहाँ इस फ़ूल का नाम कोई नहीं जानता होगा. भाई बहनों के बीच कोई अस्वस्थ ग्रंथि और दुराव नहीं है, यह देख कर प्रसन्नता होती है. मुझे अपनी किशोरावस्था की वर्जनाएँ और मर्यादायों की अति की याद आती है. साथ ही, उनके प्रतिकार और विरोध में किये गये अपने विद्रोही कार्य भी याद आते हैं और मैं मुस्करा उठती हूँ. परन्तु अब, लगभग पच्चीस वर्ष के बाद मैं परम्परा की प्रतीक हूँ और मेरे परम्पराभुक्त संस्कार इस बात का अनुभव करके संतुष्ट होते हैं कि आधुनिक प्रभावों के बावज़ूद मेरी लड़कियों के मन में कुछ मर्यादाएँ शेष हैं.
एक सम्भावना और भी है. नयी पीढ़ी के साथ कदम मिलाने के लिए मैं भी माधवी लता, सूरजमुखी और गुलाब के संस्कारों को झुठला कर कैक्टस और मनीप्लाण्ट पसन्द करने का अभिनय करने लगूँ. इस कल्पना से ही मैं अपनी दृष्टि में दयनीय हो उठती हूँ और जैनेन्द्र जी को आगाह करने की इच्छा होती है कि "विज्ञान" और "लिबरेटेड माइण्ड" के काँटों से अपने खद्दर के वस्त्रों को बचाये रखें.
फ़ूलों और कैक्टसों के सन्दर्भ में एक और प्रसंग स्मृति में जुड़ जाता है. मेरे गांव से एक पिता पुत्र दिल्ली घूमने के लिए आये हुए हैं. मेरे मेहमान हैं. मेरी शहरी सन्तानों द्वारा यत्नपूर्वक लगवाये गये कैक्टसों को देख कर चकित हो कर बच्चा अपने पिता से कहता है, "बाबू, हियाँ थूहड़े थूहड़ लगे हैं, कइसे निकली" (यहाँ थूहड़ ही थूहड़ लगे हैं किस प्रकार निकलूँ). बच्चे के पिता मुझसे पूछते हैं, "यहाँ गायें आती हैं क्या? नागफनी और थूहड़ क्यों लगा रखे हैं? फ़ूल और कैक्टस के सम्बन्ध में यहाँ पीढ़ी का भेद नहीं है. पुरानी और नयी दोनों दृष्टियों में कैक्टस का एक ही उपयोग है, लहलहाते खेतों की पशुओं से रक्षा करना. मेरे तीनो शहरी बच्चे उनके इस प्रश्न पर हँसते हैं, उन्होंने कैक्टस पालना और संजोना सीखा है, जिसकी मूल प्रेरणा फैशन और आधुनिकता है, वह आधुनिकता जो शहरी परिवेश में बाहर से प्रवेश पा लेती है और कुछ समय के लिए हमारी समस्त उपलब्धियों और मूल्यों का माप दण्ड बन जाती हैं. कैक्टस के प्रसंग में मेरे सामने फ़िर दो चित्र हैं. पहला, कृत्रिम वातावरण में यत्नपूर्वक आधुनिकता के नाम पर उगाये हुए विभिन्न तरह के कँटीले पौधे, जिन पर मेरे बच्चों को गर्व है और दूसरा अपने आप उगने वाले थूहड़ों और नागफ़नी से सुरक्षित खेतों की बाड़. गाँव और नयी और पुरानी पीढ़ी जिनकी ओर ध्यान भी नहीं देती. परिसंवाद के चित्र फ़िर मेरे सामने हैं, मेरे मन में प्रश्न उठता है कि नयी संवेदन का "अकेलापन", "खालीपन", "द्वन्द्व", "तड़पन" इत्यादि कहीं मेरे घर की नयी पीढ़ी द्वारा उगाये गये काँटे भरे कैक्टस मात्र तो नहीं हैं, जो आधुनिकता के नाम पर कृत्रिम वातावरण में यत्नपूर्वक पाले गये हैं? कहीं मेरे नौजवान मित्र अपनी तीक्ष्ण मेधा, अमूल्य प्रतिभा और शक्ति का अपव्यय केवल आधुनिकता के फैशन के कारण तो नहीं कर रहे हैं? क्या उनकी आधुनिकता देशज और समाज सापेक्ष है? क्या उनकी संवेदना के काँटे अपने आप पृथ्वी फ़ोड़ कर निकले हैं. अगर हाँ तो फिर नयी पीढ़ी के प्रति मैं आशावान हूँ, क्योंकि मुझे विश्वास है कि फैशन के बदलते हुए मापदण्ड मेरे घर के कैक्टस को किन्ही अन्य उपकरणों से स्थानापन्न कर देंगे, परन्तु जमीन फ़ोड़ कर उगे हुए थूहड़, खेतों की रक्षा करेंगे.
***
टिप्पणीः यह आलेख डा. सावित्री सिन्हा के आलेख संग्रह "तुला और तारे", (नेशनल पब्लिशिंग हाउस दिल्ली, 1966) से है.