औरत की आज़ादी बनाम मरदाना कमज़ोरी अर्चना वर्मा का लेखन
पिछली सदी की एक औरत का उहापोह
यह एक शत प्रतिशत पॉलिटिकली इन्करेक्ट विचार प्रक्रिया है जिसे आप चाहें तो विमर्श-विरुद्ध मान लें।
विचार अभी पूरी तरह से फॉर्मूलेट नहीं हुए हैं, आजकल की बातचीत में भी वाक्य शुरू होने के बाद गड़बड़ा जाते हैं। आजकल बातचीत भी इसी एक विषय पर होती है। प्रतिक्रिया, प्रत्युत्तर, प्रतिरोध और समझने की कोशिश सब आपस मेँ गड्डमड्ड और गुत्थमगुत्था होकर सन्तुलन बिगाड़ देते हैँ लेकिन अभी इसी वक्त कहने, कह डालने की ज़रूरत न इतना वक्त दे रही है, न फुरसत कि सुलझा लेने, फिर कहने लायक इत्मीनान मन को दिया जा सके। आम तौर से ऐसा ही होता है, बहुत से सवाल, बहुत से निरीक्षण, बहुत से पक्ष-प्रतिपक्ष मन मे लोड करके छोड़ दिये जाते हैं। मन की जगह पर शायद दिमाग कहना चाहिये। लेकिन अपने मन और दिमाग में कोई खास फ़र्क मुझे महसूस नहीं होता। निष्कर्ष पर पहुँचने तक दोनो का एक हो चुकना ज़रूरी है। फिर हफ़्ता दस दिन से शुरू करके चाहे जब तक मेँ जवाब लेकर खुद मन ही कौंध जाता है। उस जवाब पर अपने आप विश्वास होता है।
लेकिन
लेकिन उतने इन्तजार की फुरसत नहीं। इसलिये यह कोई पूरा परिसमाप्त आलेख नहीं, उसकी प्रक्रिया मेँ शामिल होने का निमन्त्रण है। प्रक्रिया शायद चलती रहे अगले कुछ दिनों तक रुकते थमते।दर्ज करने की शुरुआत तब, तरुण तेजपाल के मामले के साथ हुई थी
लेकिन ऊपर कही गयी बातों की वजह से स्थगित छोड़ दी गयी
लेकिन अब खुर्शीद अनवर की दास्तान की वजह से 'अभी इसी वक्त कहने, कह डालने' की अधीरता मेँ बदल गयी है।
लेकिन तरुण तेजपाल या खुर्शीद अनवर व्यक्ति की हैसियत से इस कहानी के किरदार नहीं,
जैसा कहानी का मूल शीर्षक ही बताएगा; और जिस तक आप अभी एकाध अनुच्छेद के बाद पहुँचनेवाले हैँ; कहानी स्त्री-पुरुष के बीच के उस मैदान के बारे में है जो रणक्षेत्र तो बन चुका है
लेकिन जिसके fair & Foul तय न तो किये गये हैँ और न इनको तय करने की तरफ़ किसी का ध्यान दिखाई देता है। सिर्फ़ एक घमासान है। दिखता नहीं कि क्या है जो बदल रहा है, बदल कर क्या बन रहा है, कुछ बन भी रहा है या सिर्फ टूट रहा है? जड़ताएँ पिघल तो रही हैं;
लेकिन जड़ताएँ बर्फ़ की तरह नहीं पिघलतीं कि पानी का साफ़ प्रदूषणरहित प्रवाह बन के बह चलें। वे टूटती हैं, भूकम्प मेँ इमारतों की तरह मलबे में बदलती, पत्थरों के ढोंको की तरह प्रवाह में भी टकराती, उसको बाधित… धत्तेरे की, यह rhetoric यहां क्या कर रहा है? आ कहाँ से गया ? जाहिर है मुद्दे मेँ कन्फ्यूज़न से?
शुरुआत यहाँ से होती है कि न्याय की लड़ाइयाँ दोनो पक्षों के लिये अन्याय की सीमाएँ तय किये बिना नहीं लड़ी जा सकतीं। लेकिन तय कैसे होगा?
मान लिया जाय कि न कोई ईश्वर है न किसी को उसकी ज़रूरत है, नयी दुनिया, नये हौसले के हवाले से मान लिया जाय, मान लिया जाय कि पाप पुण्य महज़ अवधारणाएँ हैं, खुद इंसान की गढ़ी हुई हैँ, जब चाहे बदली, फेंकी या नेस्तनाबूद की जा सकती हैँ, न कुछ पाप है न कुछ पुण्य लेकिन।
लेकिन ऐसा भी तो कुछ ईजाद किये जाने की कोई ज़रूरत क्या बिल्कुल बिल्कुल नहीं थी जो इंसानी दुनिया में जीवन को संभव और न्यायसंगत बनाने के लिये ज़रूरी कायदे कानूनों को, सही गलत की संहिताओं को अनुल्लंघनीय और अकाट्य की सत्ता दे पाता, उसे सर्वस्वीकृति की वैधता, पवित्रता, प्रामाणिकता दे सकता। किसी समय मेँ यह काम धार्मिक और पारिवारिक संस्कारों का था। अब दोनो में से किसी के पास वह वैधता नहीं है। संविधान कायदे कानून की भाषा बोलता है, अपराध (पाप नहीं) को परिभाषित करता है और किसी बिल्कुल अबूझ कारण या प्रतिक्रिया से अक्सर खुद के पालन की अपेक्षा खुद को तोड़ने की चुनौती देता हुआ पाया जाता है।
उसके न होने की दिशा में Might is Right ( सही और अधिकार – दोनो अर्थों में ) का व्याकरण अन्ततः जिस हद तक जा पहुँचाता है उस पर पक्ष-विपक्ष दोनो का, समूचे का, अस्तित्व ही ख़तरे मेँ पड़ जाता है और उस हद से लौट कर बीच की जगहों में टिकने की धरती तलाश करनी पड़ती है। न्याय अन्याय का फ़ैसला तो तब होगा जब दोनो का वजूद बना रहेगा।
तरुण तेजपाल प्रसंग से जोड़ कर आलेख जब शुरू किया गया था तब इसका नाम 'मरदाना कमजोरी' रखा गया था। अब खुर्शीद अनवर के सन्दर्भ से इसका नाम औरत की आज़ादी बनाम 'मरदाना कमजोरी' है। शीर्षक का उत्तरार्ध लता शर्मा की एक कहानी से साभार।
बात एक ऐसी कमज़ोरी के बारे में है जिसे ग़लतफ़हमी मे सदियों से ताकत और मरदानगी की तरह परिभाषित कर लिया गया है।
लेकिन फ़िलहाल बात की शुरुआत में पूर्वार्द्ध से ही करना चाहती हूँ।
एक ऐसी दुनिया अपने आस-पास जहाँ निर्दय, शिकारी चेहरों की भीड़, रातोरात अजनबी हो उठे, उस भीड़ मेँ बदल गये जाने- पहचाने चेहरे, कोई नही जानता वह भाषा जो तुम बोलते हो, कोई नहीं सुनता उस हल्ले मेँ तुम्हारी बात, न कोई समझने को उत्सुक है, मारो मारो का शोर, खून की प्यासी पुकार तुम्हारे खून की, जो तुमने किया वह गुनाह नहीं था, कम से कम वह गुनाह तो नहीं ही था जिसका आरोप है,
मुजरिम तय है मुकदमे के बिना, सज़ा भी तय है सुनवाई के बिना। इस दुनिया को तुम नहीं जानते। क्षण भर मेँ तुम इस दुनिया के बाहर हो। तुम्हारे और उसके बीच एक फ़ासला है। उस फ़ासले को भरता है disgust का एक भाव, महज़ disgust. कौन हैँ ये लोग? किसको क्या समझाने की कोशिश कर रहे हो तुम? किस बात की सफ़ाई दे रहे हो? आवेश, आवेग, अतिरेक disgust का। इस दुनिया को सिर्फ़ ठुकराया जा सकता है। उसके फ़ैसले के अधिकार से इंकार किया जा सकता है। इसके साथ हर connect तोड़ा और वापस लिया जा सकता है। टूट गया। आवेश, आवेग, अतिरेक – सब कुछ एक शारीरिक हरकत मेँ बदल जाता है। सबसे ऊपर वाली मंजिल से छलांग – लो, ठेंगा, अब करते रहो फैसला।
इस बार एक पुरुष के हिस्से मेँ प्रायः स्त्री के हिस्से का यह दैनिक तो नहीं लेकिन फिर भी बारम्बार का, अक्सर और ज़्यादातर का अनुभव है। अब भी अक्सर और ज़्यादातर एक स्त्री के हिस्से का ही।
लेकिन
पिछली सोलह दिसम्बर से अगली सोलह-अठारह-बीस-बाइस दिसम्बर। एक हत्या से एक आत्महत्या तक। पहिया घूम चुका। इतना हुआ। किसी भी पुरुष का नाम लो। आसान नहीं है किसी के लिये भी पब्लिक स्फ़ियर में वह सब कह पाना जो सदियों से कहा जाता रहा है, भले ही एकान्त में अब भी कहा ही जा रहा हो। कि औरत ही ऐसी रही होगी, दुश्चरित्र, उसी ने उकसाया होगा, बुलाया होगा, छिनाल कहीं की वगैरह।
किसी भी पुरुष का नाम लो। सन्दिग्ध होगा। बलात्कारी।
स्त्री के पक्ष मेँ होना ही काफ़ी नहीं है, न सिर्फ़ मुखर बल्कि पुरुष के विपक्ष में आक्रामक, हिंसक और ध्वंसक।यही पालिटिकली करेक्ट है। इस हिंसकता में न्याय के पक्ष का औचित्य और आक्रामकता में पक्षधरता का अहंकार है। पक्षधरता का स्वभाव भी, लक्षण भी, हथियार भी और रणनीति भी आवेश, आवेग और अतिरेक है क्योँकि उसमेँ अपने पक्ष के अपरीक्षित भी/ही सत्य होने की आस्था होती है। आस्था में अन्धता या आंशिक अंधता का तत्त्व होता है, आस्थावान उसे दृढ़ता कहते हैँ। आस्था से यहाँ मतलब धार्मिक और ईश्वरीय वगैरह से नहीं, उस अटल विश्वास से है जो पक्षधरता का आधार होता है।
किसी भी पुरुष का नाम लो। कितना भी पुराना परिचित, परीक्षित, विश्वस्त। कसम खाकर कोई भी नहीं कहेगा, कह सकेगा कि नहीं, ऐसा हो ही नहीं सकता। जब तक कि वह छलांग लगा कर जान ही न दे बैठे। बल्कि परिचित, मित्र, नाते-रिश्ते के सिलसिले मेँ तो और भी ज़रूरी हो जाती है, कोई भीतरी सी बाध्यता, कि आक्रामकता और भी मुखर हो, हिंसा और भी प्रखर। इससे न्याय की पक्षधरता ज़्यादा विश्वसनीय और प्रामाणिक बनती है। निशाना सामने है और निशानेबाज़ी अचूक। सामने जो है वह फिर सिर्फ निशाना है, कोई इंसान नहीं। उसे न चोट लगती है न दर्द होता है। हो भी तो होता रहे। उसको एक सबक बनाना है। उसके उदाहरण से पाठ पढ़ाना है। उसका शेष अस्तित्व शेष हो चुका है, किया-धरा, सोचा-विचारा, देना-पावना सब कुछ।
स्त्री जानती है चिरन्तन सन्दिग्धता का यह बाधक अनुभव, यह रोक, यह बाड़ से घिरी मारी गयी बाढ़।
इस प्रसंग में सुनाये जाते फ़ैसलों की यह भाषा कि 'आत्म हत्या अगर पुरुष ने नहीं, स्त्री ने की होती तो', या बिना यह जाने कि 'जो' हुआ 'सो' क्या था, यह फतवा कि 'आत्महत्या कर लेने से कोई बरी नहीं हो जाता, क्योंकि जो हुआ सो तो हुआ ही था' । यह स्त्री-भाषा नहीँ, पितृसत्ता के प्रतिमानक दायरों के भीतर फँसी स्त्री की और उसके साथी समर्थक सहानुभूतिशील पुरुष की भाषा है जो स्त्री के पक्ष में सुनाई सी देती है लेकिन स्त्रीभाषा नहीं है। यह प्रतिशोध की भाषा है, न्याय की नहीं। यह अलग बात है कि अब हम प्रतिशोध को ही न्याय का पर्याय मानकर चलते है। मेरे हिासब से न्याय की भाषा उस मूल्य-मान्यता-मानक की तलाश की भाषा है जिसके भीतर स्त्री बनाम पुरुष जैसा पक्ष-प्रतिपक्ष नहीं बल्कि दोनो के हितों का समान रूप से निवेश हो।
ये बहुत बार कही-सुनी, जानी पहचानी बातें हैं, इतनी बार दोहराई गयी हैँ कि पिष्टोक्तियाँ बन चुकी हैं, उनके निहितार्थों तक ध्यान ले जाया ही नहीँ गया है – हम एक गहरी उथल-पुथल और उलट-पलट से गुजर रहे हैँ। सदियों की जड़ताएँ तड़क रही हैं। स्थितियाँ बदल रही हैं। औरत ने अपनी आज़ादी के रास्ते तलाश लिये हैं, वह घर से निकल रही है, काम पर जा रही है, आर्थिक स्वाधीनता का स्वाद चख रही है, जकड़न को तोड़ रही है, खुद-मुख्तार बन रही है, अपनी इच्छा को जान रही है, समझ रही है, कहना सीख रही है, इंकार करना सीख रही है, अपनी यौनिकता को पहचान रही है, अपनी देह को अपने कब्जे मेँ ले रही है – सूची को बढ़ाते जाने के लिये आपको मेरी मदद की ज़रूरत नहीं, और युवजन, आप बेशक इसको मुझसे बेहतर जानते और बढ़ा सकते हैँ।
अन्याय और उत्पीड़न के दर्द का उत्तराधिकार
सूची के समापन के क्रम में 'शेषः अगली कड़ी' के उपशीर्षक को देख रही हूँ – 'अन्याय और उत्पीड़न के दर्द का उत्तराधिकार' और पाठक की संभावित ग़लतफ़हमी का अहसास हो रहा है। उत्तराधिकार अतीत से जोड़ता है लेकिन नहीं, यह आलेख पितृसत्ता की सदियों के अन्याय और उत्पीड़न या उसके सामाजिक, नैतिक, राजनीतिक,दार्शनिक, नृतत्त्वशास्त्रीय कारणों परिणामों का लेखाजोखा नहीं है न उनकी आड़ मेँ आज के आचरणों को निर्धारित करने की कोशिश। वे सारे सच अपनी जगह मौजूद हैँ लेकिन फ़िलहाल सूची के समापन मेँ यह दर्ज करना चाहती हूँ कि अतीत के अन्यायों का प्रतिशोध वर्तमान में नहीं लिया जा सकता। वर्तमान में सिर्फ़ उन मौजूदा विषमताओं का संशोधन किया जा सकता है जो भले ही अतीत में भी मौजूद रही हों, लेकि वर्तमान तक चलती चली आई और मौजूद हैँ। वर्तमान मेँ सिर्फ वर्तमान का हिसाब-किताब और निपटारा किया जा सकता है। काल मेँ वापस न लौट सकने का एक वास्तविक अर्थ यह भी है कि व्यावहारिक कार्यक्रम केवल वर्तमान के पास हो सकते हैं।
एक बेहतर शीर्षक शायद 'उत्तराधिकार का बोझ और वर्तमान' हुआ होता। लेकिन अब जो दे दिया गया सो दे दिया सही क्योँकि जैसा कहा, अभी एक अधीर प्रक्रिया के तहत यह सोच विचार दर्ज करते हुए मैँ व्यतिक्रम की छूट बनाये रखना चाहती हूँ।
मैने कहा था कि मैं खुर्शीद, इला, मयंक वगैरह मेँ से किसी को नहीं जानती। इस सिलसिले मेँ मुझे अपने मैसेज बॉक्स मेँ एक प्रश्न मिला – "एक सहज जिज्ञासा वश पूछ रहा हूँ कि जब आप इन लोगों को व्यक्तिगत रूप से नहीं जानती तो इतने भावावेश में लिखने की क्या जरुरत थी....?”
प्रश्न करने वाले का शुक्रिया क्योंकि इससे अहसास हुआ कि व्यक्तिगत तौर पर पक्ष-विपक्ष में बँटे हुए इस समय के माहौल में शायद केवल इसी तरह पढ़ा जा सकता है। लेकिन
इनकी जगह पर कोई और नाम भी हो सकते थे। ये कोई इक्का दुक्का मामले नहीं हैं। अनेक व निरन्तर में से ये एकाध है लेकिन हाई प्रोफ़ाइल हैं, इसलिये इतना शोरशराबा और ह्ल्ला-गुल्ला है। और खुर्शीद के मामले में एक स्तब्ध छोड़ जाने वाली त्रासदी भी हालाँकि जिसके एक रहस्यमय और षड्यंत्रपूर्ण कोर्टरूम ड्रामा मेँ बदल जाने की आशंका व संभावना भी उभरने लगी है। सदमा सामूहिक और गहरा है, स्त्री-पुरुष दोनो ही पक्षों से, किसी नयी शुरुआत में उसके इम्पैक्ट की शायद अपनी कोई भूमिका हो या बन सके।
जो कुछ भी पिछले दो तीन दिनों में लिखा गया उसको लिखते हुए मेरा अनुभव किसी भावावेश का नहीं था, कम से कम वह किसी व्यक्तिगत लगाव या जान-पहचान का भावावेश तो नहीं ही था। एक व्यग्रता, अगर कोई थी, तो उस परिवेश के लिये जिसकी कोख से इस किस्म के हादसे लगातार जन्म ले रहे हैँ, और उस नयी पीढ़ी के लिये, उसके सरपरस्त वरिष्ठ जन के लिये भी जिनकी जीवनपद्धति इन हादसों की चपेट में आने का बना बनाया तैयार- नुस्खा है।
आखिर यह हो क्या रहा है?
इसके बाद का बयान इस हादसे और उसके सदमे से अलग होता है। पीड़िता के साथ पूरी सहानुभूति के बावजूद इस हादसे के बारे मेँ कोई भी निष्कर्ष अब संभाव्य संदेहों के परे नहीं हो सकता। मानुषी सबसे पुराने NGOs में से एक है, मधु किश्वर इतनी पक्व और प्रौढ़ – सीज़न्ड ऐक्टिविस्ट हैँ। इतनी बड़ी ग़लती उन्होंने कर कैसे दी? यह तथ्य केवल तब असन्दिग्ध होता जब मधु किश्वर ने उपयुक्त समय के भीतर पीड़िता की मेडिकल जाँच कराई होती। और जिस किस्म के क्रूर और बर्बर बलात्कार का दावा किया गया उसे देखते हुए तो और भी ज़रूरी तौर पर। वाम और दक्षिण राजनीति के पेंच और पैंतरों की भाषा यहाँ न घसीटी जाय, यह एक सीधा, साफ़, बेमिलावट तथ्य है। यहाँ तक कि दिवंगत की डायरी मेँ मिले और उनके कन्फ़ेशन की तरह प्रचारित शब्द "जो हुआ" वह सहमति से हुआ भी कानून की सख्त कसौटी पर कसे जायें तो कन्फ़ेशन की मंशा प्रमाणित नहीं होगी क्योंकि साबित नहीं किया जा सकता कि "जो" से मरहूम की मुराद क्या थी, और क्योंकि इस किस्म का आरोप मौजूद था तो 'फ़िल इन द ब्लैंक्स' के लिये सर्वाधिक सहज उपलब्ध शब्द होता बलात्कार इसलिये मान ही लिया गया कि वही है। अब तो ये केवल पीड़िता के शब्द हैं और उनके सच होने या न होने का कोई सबूत नहीं है। और पीड़िता स्त्री के शब्दों को सच ही मानने का कानूनी प्रावधान है, प्रावधान का आधार यह विश्वास है कि कोई भी स्त्री इतने बड़े कलंक (?) को स्वेच्छा से, झूठे ही कभी अपने माथे नहीं लेगी।
इसलिये इसके बाद की बात इस हादसे और उसके सदमे से अलग होती है।
अब पीड़िता को अलग कीजिये और उसे आगे की बातचीत के बाहर छोड़िये।
वह भी अपने प्रतिपक्ष की तरह सन्देह के लाभ की अधिकारिणी है, स्थिति का सच यही है कि दोनो मेँ से किसी को न अन्तिम रूप से सन्दिग्ध ठहराया जा सकता है न बरी किया जा सकता है। आगे की बातचीत उनके पक्ष या विपक्ष में नहीं, उनके उदाहरण से मौजूदा हालात और उनके नतीजों को समझने की कोशिश है।
बात उस भारी सांस्कृतिक उथल-पुथल और सांस्कृतिक उलट-पुलट के बारे में है जिससे होकर हम गुजर रहे हैं। परम्परागत एकतरफ़ा शुचितावाद के तहत झूठे आरोप और पुरुष के प्रमाणित रूप से दोषी होने के बावजूद स्त्री को बहरहाल कलंकित और त्याज्य मानने की जो प्रथा चलती आई है उसको देखते हुए उचित कानूनी प्रावधान भी उलटी तरफ़ से एकतरफ़ा होने के ख़तरे मेँ हैं, वे चुप्पियाँ अब तोड़ी जा चुकी हैं। काफ़ी हद तक वह विश्वास निराधार हो चुका है। और प्रावधानों के दुरुपयोग की संभावना इस आशंका को जन्म देती है कि कहीं कोई ब्लैकमेल इण्डस्ट्री भी फूल-फल रही होगी।
बात औरत की आज़ादी के बारे मेँ है। बात उस युग्म-परस्पर या स्त्री-पुरुष के जोड़े की आपसदारी के बारे मेँ है जो समाज की रचना की बुनियादी इकाई है। इस आपसदारी की संरचना में सामूहिक पैमाने पर कुछ भी बदलने का मतलब है बुनियादी सामाजिक समीकरणों का बदलना। सम्बन्धों का, नैतिकताओं का, मर्यादाओं का बदलना। पारिवारिक भूमिकाओं का, जीवन के मकसद का, सपनों और आकांक्षाओं का बदलना। इतना बदलना कि बवण्डर बन जाना।
हमारे और युवा पीढ़ी के बीच एक बड़ा और अबूझ फ़ासला है। वे किसी और दुनिया का सामना कर रहे हैं, किसी ऐसे संसार के कोने अँतरे तलाश रहे हैँ जिससे हम बिल्कुल अनजान अपरिचित हैं लेकिन वे स्वयं भी पूरी तरह से परिचित न होने के बावजूद काल मेँ अपनी अवस्थिति के क्षण की मज़बूरी और तलाश की प्रक्रिया मेँ होने की यात्रा की वजह से उस संसार के वासी हैं। हम चाहें तो उनको और उनके माध्यम से इस परिवर्तन और इस नये संसार को समझने की कोशिश कर सकते हैँ, चाहें तो संस्कृति और नैतिकता और पिछली सामाजिक पारिवारिक भूमिकाओं और दायित्त्वों के स्तूप पर खड़े होकर उनके ख़िलाफ़ अभियोग दायर कर सकते हैं, आक्रोश में शाप दे सकते हैँ, हताशा में अवसादग्रस्त हो सकते हैं।
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शेष - अगली कड़ी — उत्तराधिकार का बोझ और वर्तमान - 2
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