अर्चना वर्मा अर्चना वर्मा का लेखन
दिल्ली 84
दिन दहाड़े
बाहर कहीं गुम हो गया
सड़कों पर
जंगल दौड़ने लगा.
उसके घर में
आज चूल्हा नहीं जला
चूल्हे में आज
घर जल रहा था.
ऐन दरवाजे पर
मुहल्ले के पेट में
चाकू घोंप कर
भाग गया था कोई.
रंगीन पानी में नहाई पड़ी थीं
गुड़ीमुड़ी गलियाँ, खुली हुई अँतड़ियाँ.
जाने कैसी घायल नींद में
गुड्डमड्ड गठरी सी
जा सोई उसकी मां
उसकी भूख से बेखबर
दीन दुनिया से बेहोश
न लाज न शरम
आवाजों से भी नहीं उठी.
सीढ़ियों के नीचे
खाली ड्रमों के पीछे
अंगड़ खंगड़ और फालतू सामान
के बीच
पंख समेटे वह कांपता
वहीं बैठा रहा जहाँ
सदियों पहले छिपा कर
माँ ने बिठाया था
और खुद जा कर सो गयी थी.
सब कुछ बीत जाने के बाद
आए वे
अमन के फ़रिश्ते
बेहद अफसोस के साथ
देखा कि
अब यहां कुछ नहीं, कोई नहीं
बचा
और चलने को हुए
ठीक उसी वक्त
अपनी परछाईं से घबराता
पंखनुचे परिंदे सा
फड़फड़ाता
मां की मृत देह पर
पांव रख लड़खड़ाता
नन्हा सा घायल भविष्य
छिपने की जगह से
बाहर आया. पहचान नहीं पाया
कि सामने के लोग
वही हैं जिनसे वह छिपा था
या कोई और.
उसने पूरी ताकत लगायी पर
सूखे फटे कण्ठ से
आवाज नहीं आई -
ठहरो, बचा लो मुझे.
हवा की सरसराहट
उसकी साँसों से गूँजती है
इस उम्मीद में कि
फ़रिश्ते शायद सुन लेंगे.
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