अर्चना वर्मा अर्चना वर्मा का लेखन
नानी के लिये एक कविता
रेशा रेशा बिखर कर
धूल होने के ऐन पहले
रक्त के जम कर
चट्टान हो जाने के क्षण में
हर बार
मैं सुन्न रह गयीं हूँ.
फ़िर पिघल कर नसों में
गाते, गुनगुनाते, उफनाते दौड़ उठने के
क्षण में
बिखराव के कविता बनने न बनने के
बीच उस सन्नाटे को
हर बार मैंने दोहराया है
कहाँ था
किस कोने में छिपा था यह गान? इसके पहले
कहाँ छिपी थी यह चट्टान? फिर जीना
मुश्किल नहीं रहता.
वह मुझमे नहीं थी चट्टान. वह मेरा नहीं था
गान. कहीं पीछे. कहीं पहले से बहती आयी
धार एक भँवर में
जरा देर को ठिठकी थी.
वह सिर्फ एक शाख़ थी
जिसने जाना या शायद
अन्ततः नहीं जाना कि
पेड़ किस धातू को किस ताप से
पिघला कर किस तापमान पर
खौला कर
एक फ़ूल उगल देता है.
वह सिर्फ एक राह थी जिससे
गुज़र कर पेड़
फ़ूल बन गया.
उस पेड़, उस फ़ूल, उस शाख को
जानती हूँ, नानी माँ
जिसका बीज तुमने रोपा था.
वह फूटेगा. फिर. गायेगा नस नस में
रक्त के उफनाने का गान. जम कर मुझे
टूटने से पहले फिर बचा
लेगी चट्टान. मुझसे आगे बह जाने के लिये
फिर बह आयेगी धार. फिर
पेड़ फ़ूल उगल देगा.
फिर जीना आसान होगा.
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