स्त्री-विमर्श के 'महोत्सव' अर्चना वर्मा, 2016
तकरीबन आठ दस साल पहले की बात होगी। 'कथाक्रम' के नवम्बरी सालाना आयोजन का विषय उस बार स्त्री-विमर्श था। दो दिन के कार्यक्रम के बीच किसी अवकाश में मुझसे एक युवा पत्रकार ने साक्षात्कार में इस आशय का एक सवाल पूछा था कि क्या वाकई बुज़ुर्गों की इस आशंका के सच होने का समय आ गया है कि समाज रसातल को जा रहा है? बुज़ुर्गों के बहाने वह अपनी आशंका को आवाज़ दे रहा हो तो कोई ताज्जुब नहीं। फ़र्क यहाँ वृद्ध और युवा का उतना नहीं है जितना स्त्री-विमर्श के विरुद्ध शेष समाज का है जिसमें केवल पितृसत्ताक् मानसिकता से संचालित पुरुष ही नहीं, एक हद, बड़ी हद तक स्त्रियाँ भी शामिल हैं। शरीफजात मध्यवर्गीय हिन्दीभाषी समाज में, साहित्य और साहित्येतर दोनो, जहाँ से अधिकांश लेखक और पाठक वर्ग आता है, स्त्री-विमर्श को अभी तक आशंका, अविश्वास, अवमानना, शायद भय और निश्चित आक्रामकता के साथ देखा जाता रहा है। यहाँ आज भी स्त्री की हैसियत से उसका जीवन स्त्री-देह के द्वारा परिभाषित होता है और वर्चस्व, दमन व शोषण के जो भी अतिरिक्त पैमाने उस पर आयद होते हैं, उनका परिणाम स्त्रीदेह की सन्दिग्धता, दुर्बलता व आक्रमण-योग्यता का आदर्शीकरण है। इसकी वजह से आज भी बड़े पैमाने पर उसके लिये अपने अस्तित्व का मतलब निरन्तर एक हमलावर दुनिया में असुरक्षित, भयभीत, आशंकित मनःस्थिति में जीना है, जहाँ दैहिक पवित्रता जैसी सहज भंगुर वस्तु की रक्षा की जिम्मेदारी उसके सिर पर लाद तो दी गयी है लेकिन जहाँ उसके अपने अपर्याप्त बूते के अलावा मानो बाकी हर किसी ने उसे खण्डित करने की ही कसम खाई हुई है। अस्तित्व की इन्हीं सीमाओं के विरुद्ध उसका विद्रोह है और इसी विद्रोह के विरुद्ध बुज़ुर्गों की तथाकथित आशंका है कि समाज के रसातल को जाने का समय आ गया है। मानो रसातल को जाने का एकमात्र यही कारण हो और समाज को बचाने की जिम्मेदारी अकेले स्त्री की हो और मानो इस तरह से समाज का बचना संभव ही हो।
स्त्री-विमर्श अभी भी हमारे समाज के लिये आत्म-परीक्षण और आत्मालोचन को उकसाने का समुचित कारण नहीं बन सका है। इसी मानसिकता का नवीनतम जलवा नया ज्ञानोदय के बेवफ़ाई सुपर-विशेषांक के मशहूर साक्षात्कार के और भी मशहूर उद्धरण में धधक रहा है – " कह सकते हैं कि यह (स्त्री) विमर्श बेवफ़ाई के विराट उत्सव की तरह है। लेखिकाओं में होड़ लगी है यह साबित करने के लिये कि उनसे बड़ी छिनाल कोई नहीं है।"
विराट शब्द तो बहुत बड़ा है, लेकिन हिन्दी का स्त्री-विमर्श चाहे कितना भी विकलांग, अधूरा, एकतरफ़ा, और अपर्याप्त क्यों न कहा जाता हो, इतनी चेतना तो उसने जगाई ही है कि इस पुरुषवादी मानसिकता की अभिव्यक्ति के विरुद्ध ऐसा न्यायाधिकार-परायण एकजुट आवेश और प्रतिरोध, एकमत आक्रोश और अभियान संभव हुआ है। निश्चय ही यह स्त्री-विमर्श के लिये महोत्सव का एक कारण है।
नाम सिर्फ़ एक नाम नहीं
यह उद्धरण यहाँ अपने वक्ता के नाम के बिना ही ही पेश किया जा रहा है। इसकी वजह सिर्फ़ इतनी भर नहीं कि मामला अगर मशहूर और सुर्खि़यों में मौजूद है तो आश्वस्त हुआ जा सकता है कि पाठक नाम के बिना भी जान ही गये होंगे, बल्कि यह है कि बात सिर्फ़ एक नाम की नहीं, एक पूरे साँचे की है जिसमें से यह मानसिकता ढल कर निकलती है। लेकिन, बेशक नाम की अपनी एक बेहद ज़रूरी अहमियत है, क्योंकि अमूर्त के ख़िलाफ़ अमूर्त को यथार्थ के मैदान में उतारने के लिये मुद्दों का एक मूर्त ठोस आकार लेना ज़रूरी है। अन्यथा मानसिकता और उसको ढालने वाले साँचे के ख़िलाफ़ कोई भी लड़ाई दर अस्ल कोई ठोस और असली लड़ाई नहीं बन पाती, युद्ध के लिये प्रयाण का भ्रम पाले रख कर, हवा में अनन्तकाल तक एक हवाई तलवार भाँजते हुए मैदान के आदि से अन्त तक आना जाना निष्फल निर्बाध चलता रह सकता है।
हिन्दीभाषी समाज में स्त्री-विमर्श अभी अपनी प्राथमिक परिभाषा के आस-पास ही ठिठका हुआ है, अभी भी वह स्त्री के प्रति सामाजिक अन्याय और उत्पीड़न के विरुद्ध लड़ाई है। सशक्तीकरण की शुरुआत सजग चेतना के उदय से होती है, व्यक्तिगत स्तरों पर थोड़ा बहुत हुई भी है लेकिन बड़े पैमाने पर वह शुरुआत होनी अभी बाकी है।
सामाजिक साँचों और अलिखित अनुबन्धों के ख़िलाफ़ लड़ाई के दो पक्ष हुआ करते हैं – तात्कालिक और दीर्घकालीन। अभी उपस्थित छिनाल-प्रसंग 'तात्कालिक' का एक उदाहरण है, सहसा उठ खड़ी एक ऐसी घटना जिसके इर्द-गिर्द एक कोलाहल जमा होकर मुद्दे में बदल गया है। फ़िलहाल यह घटना एक व्यक्तिवाची संज्ञा है, एक नाम। जातिवाची संज्ञाओं के जरिये चलने वाले अमूर्त वैचारिक विमर्श में व्यक्तिवाची संज्ञाएँ एक ऊर्जा-तरंग जोड़ देती हैँ। टकराहट से पैदा होने वाला क्षोभ और उद्वेग एक वैचारिक व्यग्रता और पर्युत्सुकता को जन्म देता है लेकिन केवल वैयक्तिक उठापटक तक सीमित और गाली गलौज में विघटित होकर रह जाने की संभाव्य नियति को भी। अखबारी सुर्खियों से मिलने वाला विस्तार अगर इस विघटन के पैमाने का विस्तार बनकर ही रह जाए, व्यग्रता को वैचारिक पर्युत्सुकता में न बदल पाए, तो यह अखाड़े से उठी धूल से अधिक कुछ नहीं जो थोड़ी देर में बैठ जाएगी।
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यह मानने से इंकार नहीं कि हिन्दी के साहित्यिक स्त्री-विमर्श की अपनी न्यूनताएँ और अपर्याप्तताएँ हैं, उसमें वैचारिक क्षमता और मननशीलता अभी उतनी प्रौढ़ और पुष्ट नहीं जितनी कि भाव-प्रबलता, अनुभव-लिप्तता, और उद्गार-प्रवणता। अक्सर वह विमर्श से अधिक हाहाकार जैसा सुनाई पड़ता है। लेकिन भाव, अनुभव, उद्गार, हाहाकार सबकुछ विश्लेषण की सामग्री है, सत्यों और तथ्यों का ऐसा आगार जिससे वैचारिक आन्दोलन की आधारशिला खड़ी होती है।
इंकार यह मानने से भी नहीं कि उल्लिखित साक्षात्कार के जिस अनुच्छेद से यह उद्धरण लिया गया है उसके अतिरिक्त शेष पूरा वक्तव्य स्त्रीवाद का स्टॉक-विमर्श है और उसमें ऐसी बहुत सी बातें हैं जो ऐसे प्रसंगों में स्त्री-पक्ष से कही जाती हैं। कहा गया है कि बेवफ़ाई को समझने के लिये धर्म, वर्चस्व और पितृ-सत्ता जैसी अवधारणाओं को समझना होगा, धर्मों ने स्त्री की यौनिकता को परिभाषित किया है, स्त्री के शरीर की वर्चस्ववादी व्याख्या की है, जैसे जैसे स्त्रियाँ व्यक्तिगत सम्पत्ति और क्रयशक्ति की मालकिन होती जा रही हैँ धर्म द्वारा प्रतिपादित वर्जनाएँ टूट रही हैं, एंगेल्स को उद्धृत करते हुए कहा गया है कि जब तक सम्पत्ति और उत्पादन के स्रोतों पर स्त्री-पुरुष का समान अधिकार नहीं होगा पुरुष इस स्थिति फ़ायदा स्त्री के भावनात्मक शोषण के लिये लेगा, बेवफ़ाई एक पॉवर डिस्कोर्स है इत्यादि, इत्यादि। वे सभी बातें यहाँ कह दी गयी हैं और कुछ एक साहित्यिक सहकर्मियों पर वे आक्रमण भी कर दिये गये हैं जिनमें शामिल होकर अपनी न्यायप्रिय मंशा और सद्भावना का प्रमाणपत्र पाया जा सकता है।
आपे के साथ भी लड़ी जाने वाली लम्बी लगातार लड़ाइयाँ समय-समय के पड़ावों पर ज़रूरी समझौतों के बिना अनन्त काल तक चलाई नहीं जा सकतीं और अगली पीढ़ी को निरन्तर हस्तान्तरित करते चलने की जागरूकता के सिवाय और किसी भी तरह से गन्तव्य तक पहुँचाई नहीं जा सकतीं।
एक व्यक्ति की हैसियत से एक झटके से इस परम्परा को अलग कर देना, स्वयं को उससे तोड़ कर उसके दायरे के बाहर आ जाना वैयक्तिक सशक्तीकरण हो सकता है, लेकिन उपस्थित तात्कालिक प्रसंग की तरह परम्परा बार बार लौट कर घेरती है। व्यक्तिगत स्तर पर सही, इस सशक्तीकरण की गिनती का बढ़ते जाना, उसको बढ़ाते जाने में योग को अपना दायित्व समझना 'क्रमशःआन्दोलन' का एक रास्ता और 'पर्सनल इज़ पॉलिटिकल' की एक नयी व्याख्या भी कही जा सकती है। और वह एक झटके से होने वाला काम नहीं है।
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वस्तुतः किसी भी समय का जो प्रचलित विमर्श होता है उसका वाग्जाल पकड़ लेना और वक्त – मौके पर उसके तर्क पेश कर देना जितनी सहजता से संभव है उतना ही सहज रूप से संभव और ज़रूरी यह प्रायः और शायद नहीं होता कि यह वाग्जाल और ये तर्क वस्तुतः कहने वाले की असली मंशा और मनोभावना को अभिव्यक्त करते हों। कम से कम स्त्री-विमर्श के लिये वे सहज-विश्वसनीय तो वे नहीं हो सकते। पितृसत्तात्मक सामाजिक साँचे में ढली जिस मानसिकता की बात पहले कही गयी है, वह इस सैद्धान्तिक वाग्जाल और तर्कविन्यास के परत-दर-परत लपेटे में सत्तर पर्दों के भीतर औचित्य के आडम्बर में छिपी बैठी रहती है। वह तो कहीं किसी असावधान क्षण में अचेतन अपनी पर्दाफाड़ अभिव्यक्ति से असलियत को उजागर कर देता है वरना हमारा बौद्धिक समुदाय इतना चतुर तो है ही कि ज्ञानी गुनी उदारता का दिखावटी तामझाम फैलाकर अपनी पुरुषवादी मानसिकता का पता न पड़ने दे।
एक अवान्तर प्रसंग की तरह यह मसला यथा-तथा न्याय की किंचित स्मितिजनक मिसाल है। बरबस याद हो आता है कि 'हंस' के दूसरे स्त्री-विशेषांक का संपादन करते समय मैने राजेन्द्र जी के 'होना सोना एक खूबसूरत दुश्मन के साथ' नामके आलेख का प्रकाशन आगामी मास में विशेषांक की अतिरिक्त सामग्री के साथ छापने के आशय से स्थगित किया था। स्थगित करने की वजह यह आशंका थी कि उसकी 'दिल-फ़रेब' कथन-शैली मुख्य अंक की अपेक्षाकृत गंभीर बातचीत से ध्यान भटका कर बहस को पटरी से उतार देगी अन्यथा वह आलेख सोद्देश्य पितृसत्तात्मक सामाजिक साँचे में ढली पुरुष मानसिकता ( अकेले राजेन्द्र यादव की नहीं) को उजागर करते हुए लिखा गया था और मेरा इरादा एक संक्षिप्त टिप्पणी के साथ उसे स्त्री-विमर्श के पूर्वपक्ष की तरह प्रस्तुत करने का था। यह बात अलग रही कि राजेन्द्र जी से अगले अंक तक का भी धैर्य नहीं रखा गया था और उन्होंने इस आलेख को विशेषांक के साथ साथ बाज़ार में लाने के लिये संपादक श्री विभूतिनारायण राय को 'वर्तमान साहित्य' में छापने के लिये के लिये सौंप दिया था। आलेख के साथ संपादिका के स्त्रीसुलभ निरंकुश अत्याचार से पीड़ित पुरुष संपादक के चीत्कार समेत एक संक्षिप्त आमुख भी था। संपादक जी को बिन माँगे मुराद मिली। किया उन्होंने यह कि लेख उस अंक में नहीं छापा गया, उसके बाद साल भर तक भी किसी अंक में नहीं छापा गया, इस बीच बार बार वापस माँगने के बावजूद वापस भी नहीं किया गया। साल भर बाद जब छापा गया तब उसके पास न स्त्री-विशेषांक का संदर्भ था जिसका उसे पूर्व-पक्ष होना था, न राजेन्द्र जी का अपना आमुख था जो उसके रचे जाने को कोई सन्दर्भ दे सकता था और पराई पत्रिका में संपादिका की परिचयात्मक टिप्पणी की तो कोई संभावना ही नहीं थी। संपादक श्री विभूतिनारायण राय की अपनी टिप्पणी ज़रूर थी जो पाठक को पुकार कर राजेन्द्र यादव की रुग्ण और विकृत मानसिकता के दर्शन का निमन्त्रण देती थी। स्वाभाविक ही था कि श्री राय के निमन्त्रण के उत्तर में उस आलेख की व्यंजना को अभिधा की तरह पढ़ा गया और अगले कई साल कई दसियों अखबारों और पत्रिकाओं के कई हज़ार पन्ने राजेन्द्र यादव की 'उस' मानसिकता को कोसने और सरापने में खर्च किये गये जो दर अस्ल उनकी (शायद) नहीं, उनके समाज के बहुसंख्य पुरुष समुदाय की थी और जिसे उन्होंने स्वेच्छा से सोद्देश्य उजागर करने का ख़तरा उठाया था।
पुरुषवादी मानसिकता से शुरू कर यहाँ तक आने - पहुँचने में शायद उन्होंने एक लम्बी और बीहड़ यात्रा तय की होगी। उन पर हमला करने वालों में स्त्रियों से कई गुना अधिक गिनती में पुरुष थे – हमारे ऐसे ही सद्गृहस्थ सज्जन सामाजिक बौद्धिक जन जो अनुकूल विमर्श के लपेटे में अनुकूल तर्कों का जाल बिछाते हुए चौकन्ने रहते और अपनी असलियत का पता नहीं पड़ने देते, जब तक कि यथा-तथा न्याय के ऐसे उदाहरणों में असलियत खुद प्रकट नहीं हो जाती।
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तो राजेन्द्र हों या राय, यथाप्रसंग ये उदाहरणार्थ नाम हुआ करते हैं जो स्त्री-विमर्श (या किसी भी अमूर्त लड़ाई) को आक्रमण के लिये निशाना और जूझने के लिये जोश प्रदान करके मूर्त बनाते हैं। तात्कालिक प्रसंग के आवेग और उत्तेजना में व्यक्ति के साथ कभी कभी कुछ ज़्यादती भी शायद हो जाती हो लेकिन निस्संदेह वह उसकी स्वयं-आहूत हुआ करती है। वक्त के साथ ये व्यक्तिवाचक संज्ञाएँ झाँसी की रानी, जयचंद, विभीषण, दुर्वासा, नारद वगैरह की तर्ज़ पर, और इधर हाल के वर्षों (विमर्शों) में मथुरा, शाहबानो वगैरह जैसी जातिवाचक/ गुणवाचक अभिव्यक्तियाँ बन कर विमर्श के शब्दकोश में एक सन्दर्भ बन जाया करती हैँ। कौन जाने, 'रायबहादुर' इस सन्दर्भ-कोश की आगामी वृद्धि- समृद्धि हो, और अगली पीढ़ी को समझाने में संदर्भ की तरह काम आए।
लेकिन नाम केवल नाम ही नहीं हुआ करते, और लड़ाई किसी एक नाम के माफ़ीनामे या पद से बर्खास्तगी की माँग में सिमट कर रह जाए तो उसकी उपलब्धि व्यक्तिगत प्रतिशोध की तृप्ति और सन्तोष भले हो, लड़ाई का एक मुकाम नहीं मानी जा सकती। उस नाम के जरिये जो मनोवृत्ति उजागर होती है उसके साथ लड़ाई एक लम्बी, धीमी और तकलीफ़देह प्रक्रिया है। संस्कार और परम्परा के नाम पर जो औचित्य वह पाती है उसके साथ मुकाबले का एक ही तरीका है, अपने भीतर और आस-पास लगातार शंका और प्रश्न का माहौल बनाए रखना और धैर्य को, धीर विलम्बित आक्रोश को न छोड़ना, आपसी समझ को कायम रखते हुए और ज़रूरी समझौते करते हुए भी समझौतावादी न होना। पीढ़ियों तक चलने वाली लम्बी लड़ाइयाँ, अपने घर आँगन में लड़ी जाने वाली लड़ाइयाँ, अपने आपे के साथ भी लड़ी जाने वाली लम्बी लगातार लड़ाइयाँ समय-समय के पड़ावों पर ज़रूरी समझौतों के बिना अनन्त काल तक चलाई नहीं जा सकतीं और अगली पीढ़ी को निरन्तर हस्तान्तरित करते चलने की जागरूकता के सिवाय और किसी भी तरह से गन्तव्य तक पहुँचाई नहीं जा सकतीं।
एक व्यक्ति की हैसियत से एक झटके से इस परम्परा को अलग कर देना, स्वयं को उससे तोड़ कर उसके दायरे के बाहर आ जाना वैयक्तिक सशक्तीकरण हो सकता है, लेकिन उपस्थित तात्कालिक प्रसंग की तरह परम्परा बार बार लौट कर घेरती है। व्यक्तिगत स्तर पर सही, इस सशक्तीकरण की गिनती का बढ़ते जाना, उसको बढ़ाते जाने में योग को अपना दायित्व समझना 'क्रमशःआन्दोलन' का एक रास्ता और 'पर्सनल इज़ पॉलिटिकल' की एक नयी व्याख्या भी कही जा सकती है। और वह एक झटके से होने वाला काम नहीं है।
बेवफ़ा कहें या बावफ़ा कहें
आत्मकथा अस्मिताविमर्शों की अपनी साहित्यविधा बन कर उभरी है। 'विमर्श' अस्मिता की राजनीति की वैचारिक प्रस्तावना और साहित्यिक अभिव्यक्ति कहे जा सकते है। आत्मकथा लेखन प्रकारान्तर से एक राजनैतिक कर्म है। वह एक उद्घाटन है, एक ऐसा उद्घाटन जो गोपन को गोपन नहीं रहने देता। गोपन के रहने की जगह तहखानों में है, समाज के निचले पेटे का सच, जिसका उद्घाटन ख़तरनाक है। लेकिन आत्मकथा को, स्त्री की आत्मकथा को खासतौर से, हम प्रायः लेखिका के व्यक्तिगत चरित्र की छानबीन और मूल्यांकन की तरह, और अक्सर तो चरित्र-हनन के एक अवसर की तरह पढ़ते हैं, समाज की गोपन सच्चाइयों के उद्घाटन की तरह नहीं।
सदियों से मौजूद चरित्र के मूल्यांकन की कुछ बनी बनाई कसौटियाँ, बाकी दुनिया में ' चेस्टिटी बेल्ट' और ऐसे अन्य मध्यकालीन औजारों का ज़माना मध्यकाल के साथ व्यतीत हो जाने के बाद भी हमारे हिन्दीभाषी समाज में आज भी स्त्री के सन्दर्भ में ' सच्चरित्र ' का कुल मतलब दैहिक पवित्रता की पर्यायवाचिता, घुट्टी मे पिलाया गया लज्जा और मर्यादा का पाठ, चुप रहने का वादा, घर की बात घर के भीतर रखने का इरादा उसके जीवन के बुनियादी सामाजिक अनुबन्ध हैं। गोपन को गोपन बनाए रखने की जिम्मेदारी स्त्री की है। इसीमें उसकी 'इज्ज़त' सुरक्षित है और इज़्ज़त उसका प्राणपण है। प्राणपण उसका कारागार है।
फिर ऐसा क्यों होता है कि जैसे ही औरत अपनी 'इज्ज़त' की चिन्ता छोड़ती और कारागार से बाहर निकलती है, वैसे ही पुरुष(सत्ता) को अपनी इज़्ज़त पर बन आती दिखती है। कहानी तो आखिर वह अपनी ही सुनाती है, प्राणपण चुकाती है, इज़्ज़त ' लुटाती' है तो क्यों स्त्री को अकारण दण्डित करके भी पुरुष को अपनी इज़्ज़त बचाने की पड़ जाती है, चाहे वह किसी भी रंगत की या पहलू की विचारधारा का पुरुष क्यों न हो? स्त्री के इस उद्घाटन के बिना भले ही वह ख़ुद अपने आप इन तमग़ों की फ़ेहरिस्त बनाता, विजय पताकाएँ लहराता, अभियान गाथाएँ सुनाता घूमता हो। तस्लीमा नसरीन की आत्मकथा इसी सन्दर्भ में व्यक्तिगत के राजनीतिक हो जाने का एक बड़ा उदाहरण है और हमारे इस तत्काल-प्रसंग में भी आत्मकथाओं को दिया गया बेवफ़ाई के विराट उत्सव का ख़िताब उस पैमाने का न सही, उसी नमूने का एक उदाहरण ज़रूर है।
छिनाल : बात एक शब्द की नहीं
इस बहस में घुसने का कोई प्रयोजन नहीं कि छिनाल का मतलब वेश्या है या व्यभिचारिणी। मंशा तो स्पष्ट ही है - अपमानजनक।
हिन्दीभाषी समाज की पितृसत्तात्मक मानसिकता के पास स्त्री-पुरुष सम्बन्ध की पहचान का एक ही मैदान है - बिस्तर।वह एक बड़ी और बुनियादी भौतिक असलियत है, लेकिन यह रिश्ता तीन बाई छः या बहुत हुआ तो छः बाई छः के इस बाड़े से बहुत बड़ा हो चुका है। इसमें बौद्धिक, वैचारिक, अकादमिक, व्यावसायिक, रचनात्मक आदि तरह तरह की अनेकपरतीय साझेदारियाँ और प्रतिद्वन्द्विताएँ शामिल हो चुकी हैँ। स्वाभाविक है कि इन उलझती सुलझती परतों में साथी,सहयोगी, सहकर्मी,सखा जैसे सम्बन्धों की कुछ भावात्मक, कुछ भावनात्मक परतें भी खुलने खिलने लगती हैं। लेकिन भावनात्मक लगाव का भी एकमात्र अर्थ अब दैहिक आकर्षण और एकमात्र गन्तव्य बिस्तर नहीं है। स्त्री-मुक्ति के पिछले सौ सालों ने स्त्री के व्यक्तित्व को जो अनेकमुखी विकास दिया है उसकी बुनियादी ज़रूरतों में दोस्ताना सम्बन्ध शामिल हैं जो बहुविध बहुसंख्य हो सकते हैं। स्त्री के लिये भी वृत्ति और व्यवसाय उतने ही महत्त्वपूर्ण हैं जितने पुरुष के लिये, केवल आजीविका के अर्जन के लिये नहीं बल्कि तृप्ति और सन्तोष की अनुभूति के लिये भी। इन वृत्तियों में लेखन भी शामिल है। कामकाजी व्यस्तताओं के बीच- कॉफ़ी के प्यालों के साथ अखबार की सुर्खि़यो और कार्यस्थल की ताज़ा ख़बर से लेकर नॉन-वेज किस्म के चुटकुलों, एक दूसरे की टाँगखिँचाई, ठहाकों, घरेलू संकटों और समाधानों तक की साझेदारी चलती है और एक पारस्परिक-अवलम्ब-व्यवस्था विकसित हो जाती है।
राजधानी के एक प्रमुख स्त्री-शिक्षा-संस्थान में अध्यापिका की हैसियत से ज़िन्दग़ी का दो तिहाई हिस्सा बिताते हुए मैंने इस नयी स्त्री को बहुत करीब से देखा है। स्त्री-विमर्श इस नयी स्त्री का विमर्श है। प्रेम और दाम्पत्त्य की एकाधिकार-वांछा उसके लिये दमघोट है और उसकी दैनिकचर्या – बिस्तर समेत – एकरस ऊबाऊ और थकाऊ है। कार्यस्थल की चुनौतियाँ, बौद्धिक उत्तेजनाप्रद वार्तालाप, भावात्मक उत्तेजनाप्रद हास-परिहास इस नीरसता में प्राणसंचार का साधन है। सम्बन्धों की परिभाषाएँ उसके लिये एकाधिकार- वांछा से बदल कर साथ-संगत और दोस्ताने की हो गयी हैं लेकिन पुरुष मानसिकता की हद अभी कुल इतनी है कि खुले से खुले दिमाग़ का दम भरने वाला, कवि और लेखक नामी प्राणी भी दूसरे लेखक साथियों की रुग्ण और विकृत मानसिकता को रुद्र हुंकारों में सरापते, गरियाते भी दर-अस्ल ख़ुद उस मानसिकता के पार नहीं झाँक पाएगा, हद से हद होगा इतना कि इस दोस्ताने को छिनाल न कहेगा तो बड़ी इनायत फ़रमाते हुए प्रेमिका कह देगा, इस बात से बाखबर कि हिन्दी संसार मेँ प्रेमिका का मतलब भी छिनाल ही है और जिसे यह ख़िताब अता फ़रमाया जा रहा है उसकी एक छवि भी प्रस्तावित की जा रही है।
लेखन की दुनिया में कई पीढ़ियाँ एक साथ सक्रिय होती हैं और उम्र में दो चार दशकों का आगा-पीछा भी दर अस्ल पीढ़यों का अन्तराल नहीं बनता। कृष्णा सोबती- मन्नू भण्डारी- उषा प्रियम्वदा,-राजी सेठ; ज्योत्स्ना मिलन-मृणाल पाण्डे-सुधा अरोड़ा, मैत्रेयी पुष्पा, चित्रा मुद्गल; अनामिका-जया जादवानी- पंखुरी राय-प्रत्यक्षा-कविता-सोनी सिंह सब एक विचित्र अर्थ में समकालीन है। सब की सब स्त्री-विमर्शवादी भले न हों, पितृसत्तात्मक समाज की जड़ताओं पर स्वयं स्वतंत्र-व्यक्तित्व होने के सबब से साकार कुठाराघात हैं और स्त्री-विमर्श का लक्ष्य सिद्ध करने में सहायक हैँ। अगर साहित्य समाज के लिये अग्रिम-चेतावनी-व्यवस्था है तो कृष्णा सोबती को सोनी सिंह की अग्रिम चेतावनी कहा जा सकता है।
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अपने एक वृद्ध और अब दिवंगत परिवारी की एक पैंतालीस साल पुरानी टिप्पणी को अगर उद्धरणचिह्नों में कहूं तो " व्यक्तित्व तो सिर्फ़ आवारा औरतों का होता है।" इस टिप्पणी को उकसाने वाला सन्दर्भ कुल इतना था कि उनकी पुत्रवधू ने अपनी पढ़ी लिखी प्रतिभाशालिनी ननद से उनके विवाह के कुछ वर्ष बाद मिलने पर अफ़सोस करते हुए कहा था कि उनकी तो पर्सनैलिटी ही ख़त्म हो गयी है। ससुर जी अपनी बेटी के इस व्यक्तित्व - विनाश पर गर्वित तो थे ही, पुत्रवधू के सामने उसे आदर्श की तरह भी रख रहे थे जो तब तक भी आखिरी कगारों पर जूझ रही थी। मेरे वे परिवारी आज होते तो शायद छिनाल के अनेक प्रस्तावित अर्थों में एक इजाफ़ा 'आवारा' यानी व्यक्तित्व संपन्न औरत का भी हो गया होता। लगता नहीं है कि पैंतालीस सालों में कोई खास प्रगति हमने की है। स्थिति आज भी यही है कि स्त्री को अपने अशक्तीकरण में आदर्श घोषित करके सशक्तीकरण की संभावनाओं को खारिज कर दिया जाता है और आवारा छिनाल जैसे विशेषण इसका साधन होते हैं।
अठारह सौ सत्तावन के गदर में लाल किला जब खाली करवाया गया तो शाही खानदान की स्त्रियों में से अनेक चाँदनी चौक और दूसरी जगहों के गली कूचों में शरण खोजने और प्राचीनतम पेशा अपनाने को मज़बूर हुईं। उन्हें रण्डी कहा जाता था क्योंकि तब इसका अर्थ प्रतिष्ठित सम्मानित खानदानी महिला हुआ करता था। तबका कुलीनता सूचक आगे चल कर धन्धासूचक बन गया। रण्डी का मतलब पता नहीं छिनाल हुआ या नहीं क्योंकि रण्डी तो निश्चय ही वेश्या का अर्थ देने लगा लेकिन छिनाल का यह अर्थ शब्दकोश- सम्मत होने के बावजूद "प्रसिद्ध" प्रयोक्ताओं द्वारा अभी विवादित है।
कहने का मकसद यह है कि यहाँ, इस सन्दर्भ मेँ छिनाल अथवा वेश्या के प्रयोग को अपमानजनक मान लेना और प्रतिरोध के कोलाहल को महोत्सव का दर्जा देना अपनी जगह पर सही है क्योंकि प्रयोक्ता की मंशा अपमानजनक है। लेकिन ज़रा ठहर कर सोचें। शायद आसानी से हमारे गले न उतरे लेकिन वस्तुतः किसी भी आजीविका की तरह यह भी एक आजीविका है, किसी भी व्यवसाय की तरह केवल एक व्यवसाय। और किसी भी समाज के लिये इतना ज़रूरी कि हर समाज में मौजूद है और बावजूद तरह तरह के कानूनी प्रतिबन्धों और प्रावधानों के, रोके से रुकने की कौन कहे, दिन पर दिन नये नये छद्मों में बढ़ता ही जाता है। छिनाल की गैरकानूनी हैसियत उसे शोषित और असुरक्षित रखती है और सामाजिक मान्यताएँ अपमानित। स्त्री-विमर्श पर, शोषण और उत्पीड़न के ख़िलाफ़ लड़ाई पर पहला दावा उसका है, और शुरुआत उसके नाम को गाली की तरह नहीं सम्मान की तरह ग्रहण करने से हो सकती है।
हम सब जानते हैँ कि ये गालियाँ पुरुष के पास स्त्री को बाँधने और रोकने के, उसे अशक्त बनाने के सबसे आसान और कारगर हथियार हैं। यही उसकी मानसिकता की अभिव्यक्ति भी है। उसे ये नाम उचारने में सोच-विचार का क्षण भर भी नहीं लगता, हिचकिचाहट का रंचमात्र अहसास भी नहीं जगता, शायद उसे आभास भी नहीं होता कि उसका कहा कितना घातक है लेकिन औरत का पूरा वजूद हिल जाता है। आत्म-सशक्तीकरण के संकल्प से लैस होकर भी, उसके सजग सचेत कार्यक्रम का हिस्सा बन कर भी, लेखन के जरिये चुप्पियों को तोड़ने का बीड़ा उठाकर भी, वर्जनाओं को चुनौती देकर भी कहीं अपने ही अवचेतन की गहराई में अवशिष्ट उसी पुरुषसत्तात्मक मानसिकता की कसौटियाँ हमें नापने लगती हैँ। मानो अनजानते ही आज भी लज्जा, मर्यादा, चुप्पी, वफ़ा वगैरह स्त्री के लिये बुनियादी पैमाने का सामाजिक अनुबन्ध है जो उसके अस्तित्व का बेड़ी-डण्डा-हथकड़ी समेत कारागार है लेकिन पुरुष के लिये महज़ एक हल्का फुल्का मज़ाक, भाषा का थोड़ा रंगीन इस्तेमाल, एक सहज अनुभूति और उसकी अभिव्यक्ति। वक्त मौके पर जता देना ज़रूरी है कि यह असहनीय है। प्रयोक्ता अगर अपनी अभिव्यक्ति को आधिकारिक बना देने की हैसियत का पदाधिकार रखता हो तो और भी ज़्यादा। लेकिन स्वयं-शक्ति के अर्जन की दिशा में अपने कवच को और पोढ़ा, और अवेध्य बनाना और भी ज़्यादा जरूरी है।कोलाहल ज़रूरी है। कोलाहल से ज़्यादा ज़रूरी है इन हथियारों को भोथरा और नाकाम करना। रण्डी और छिनाल और आवारा औरत को उसकी प्रतिष्ठा, मर्यादा और सम्मान लौटाना ज़रूरी है क्योंकि वह बहुत हिम्मतवर, व्यक्तित्वसंपन्न और निर्णयक्षम औरत है। क्योंकि हम जानते हैं कि वह इसकी अधिकारिणी है। क्योंकि हम यह भी जानते हैँ कि इन गालियों के ज़रिये हमारे वजूद को हिला देने वाले लोग वक्त मौके पर माफ़ीनामा भले दाखिल कर दें, बाज़ आने वाले नहीं हैं। वे चुप भले हो जाएँ, अपनी सोच में जारी रहेंगे और हमें पता भी नहीं चलेगा कि पितृसत्ता फ़िलहाल क्या सोच रही है। क्योंकि वे अपने इन हथियारों की ताकत से परिचित हैं, और हमारे अवचेत अशक्त आदर्शीकरण से भी इसलिये हमें ही इन गालियों का गालीपन छीन लेना होगा।
एक दिन होगा जब सुनूँगी, आवारा, छिनाल, रण्डी या शायद प्रेमिका ही। पर्यायवाची हैँ सभी। क्रोध से कहूँगी, 'माँ को याद कर रहे हैँ, या बहन को।' पहचानूँगी अपनी अवशिष्ट पुरुषसत्तात्मक मानसिकता को। उसकी माँ बहने भी तो स्त्रियाँ है। बेहतर, हँस दूँगी। और भी बेहतर, मुड़ कर कहूँगी, ' थैंक्यू फॉर द कॉम्प्लीमेण्ट।' एक दिन होगा। प्रतीक्षा है।
उस दिन स्त्री-विमर्श का तीसरा महोत्सव होगा।
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(टिप्पणीः अर्चना वर्मा ने यह आलेख कई दिनों तक विभिन्न हिस्सों में जुलाई २०१६ में फेसबुक पर लिखा था)***