डा. दुर्गाप्रसाद अग्रवाल का लेखन कल्पना का हिंदी लेखन
भारतीय समाज में स्त्री की हैसियत
पिछले दिनों एक पारिवारिक सन्दर्भ में कुछ वैवाहिक विज्ञापन टटोले तो कुछ खास बदलावों पर ध्यान गए बिना नहीं रहा. कुछ बरस पहले जहां कन्या पक्ष की ओर से दिए जाने वाले वैवाहिक विज्ञापनों में लड़की के गृह कार्य में दक्ष होने पर बल हुआ करता था, जो बाद में स्थानांतरित होकर उसके सुन्दर, स्लिम और कॉन्वेण्ट शिक्षिता होने पर जाकर ठहर गया था, अब बदला हुआ नज़र आया. अब अधिकांश विज्ञापनों में लड़की के रूप रंग, कद काठी का ज़िक्र नदारद था. इसकी जगह इस बात ने ले ली है कि वह कहां काम करती है और उसका पैकेज क्या है. ज़ाहिर है कि लड़की का किसी मल्टी नेशनल में कार्यरत होना और चार-पांच लाख का पैकेज अर्जित करना खास तौर से उल्लेखनीय माना जा रहा है. क्या इससे यह समझा जाए कि अब वर पक्ष को इस बात की ज़रूरत नहीं रह गई है कि लड़की खाना भी बनाएगी. वर पक्ष को इसकी ज़रूरत हो भी तो किसी मल्टी नेशनल में दिन के आठ दस घण्टे नौकरी करने वाली लड़की के लिए अब यह मुमकिन नहीं रह गया है कि वह पिछली पीढ़ी की स्त्री की तरह चूल्हे चौके को अपना बहुत सारा वक़्त दे. हम अपने चारों तरफ देख भी रहे हैं कि युवा दम्पतियों के जीवन की प्राथमिकताएं किस तेज़ी से बदलती जा रही हैं. अब तो परिवार की वृद्धि का मुद्दा भी नौकरी और कैरियर के आगे पिछड़ता जा रहा है.
लेकिन, जहां लड़की के प्रदर्शित करने वाले गुणों के चयन में यह बदलाव नज़र आया, वहीं एक अन्य बात पर मेरा ध्यान जाये बगैर नहीं रहा. बावज़ूद सारे सरकारी प्रयासों के हमारे यहां लिंगानुपात गड़बड़ाता जा रहा है. प्रति एक हज़ार लड़कों के लड़कियों की संख्या में निरंतर कमी आती जा रही है. सेक्स डिटरमिनेशन टेस्ट और कन्या भ्रूण हत्या को रोका जाना सम्भव नहीं हो रहा है. लेकिन यह बात वैवाहिक विज्ञापनों में कहीं लक्षित नहीं होती. अब भी वर चाहने वाले विज्ञापन वधू चाहने वाले विज्ञापनों की तुलना में बहुत ज़्यादा नज़र आते हैं. लड़के वालों को ‘वधू चाहिए’ विज्ञापन देना अपनी हेठी प्रतीत होता है. कई बार तो विज्ञापनों की इबारत में भी यह भाव लक्षित हो जाता है. कुछ लोग यह लिखकर कि विज्ञापन ‘बेहतर चयन के लिए’ दिया जा रहा है, अपनी लज्जा(?) को ढांपने का असफल और दयनीय प्रयास करते देखे जा सकते हैं.
लड़कियों की घटती संख्या और शिक्षा तथा रोज़गार के क्षेत्र में उनकी बढती सहभागिता के बावज़ूद हमारे सामाजिक ढांचे में लड़कियों और स्त्रियों की हैसियत में कोई महत्वपूर्ण बदलाव आया हो, ऐसा नहीं लगता. विवाह के बाज़ार में वर पक्ष की हैसियत बेहतर ही रहती है, वधू पक्ष के लिये समानता का हक़ अभी भी दूर ही है. कन्या भ्रूण हत्या से लगाकर वधू दहन तक के मामले भी इस बात की पुष्टि करते हैं. और इस स्थिति को बनाये रखने में जितना दोषी पुरुष वर्ग है, उससे कम दोषी स्वयं स्त्री वर्ग भी नहीं है. लेकिन, एक लगभग ठहरे हुए समाज में उस स्त्री से बहुत अधिक उम्मीद भी कैसे की जाए जिसे खुली हवा में सांस लेने का सही हक़ तो अभी भी नहीं मिल पाया है. तमाम शिक्षा के बावज़ूद उसकी दिमागी खिड़कियां अभी भी बन्द है. ऐसे में अगर वह खुद भी यथास्थिति की पोषक है तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए.
विचारणीय यह है कि क्या हम बदलाव की तरफ बढ रहे हैं, और बदलाव की गति को तेज़ कैसे किया जाए! यह तो निस्संकोच कहा जा सकता है कि बदलाव आ रहा है, हालांकि इस बदलाव के मूल में मन का बदलाव कम, आर्थिक स्थितियों और बाह्य परिस्थितियों का दबाव अधिक है. लड़की नौकरी करती है, बड़ी तनख्वाह घर लाती है, नौकरी की वजह से उसकी स्वतंत्र हैसियत होती है - इन बातों से घर में भी उसकी हैसियत में कुछ बदलाव आया है. अगर ये घटक न हों तो परिवारों में स्त्री की हैसियत लगभग पहले जैसी ही है. इस बात को उन स्त्रियों की ज़िन्दगी पर नज़र डाल कर समझा जा सकता है जो कोई नौकरी वगैरह नहीं करती.
तो क्या, इससे यह निष्कर्ष निकाला जाए कि लड़की का नौकरी करना ही उसकी ज़िन्दगी बदलने का एकमात्र साधन हो सकता है. बात भले ही कटु लगे, मुझे तो लगता है कि जैसा हमारा भारतीय समाज है, बड़ी-बड़ी लेकिन थोथी बातें करने वाला, अपनी महानता का ढोल पीटकर गिरी हुई हरकतें करने वाला, उसे किसी आदर्श की बात करके तो बदला नहीं जा सकता. आदर्श हमारे पास वैसे भी खूब हैं. यत्र नार्यस्तु पूज्यते... लेकिन हम तो देवता को भी अपने मिलावट के धन्धे का भागीदार बनाने में नहीं झिझकते. तो, स्त्री का सशक्त होना ही उसके बदलाव का कारण बन सकता है, और यह सशक्तिकरण आर्थिक ही हो सकता है. शिक्षा की बात मैं इसलिए नहीं कर रहा कि जैसी शिक्षा हम देते आ रहे हैं, वह कोई बदलाव ला ही नहीं सकती. दर असल वह शिक्षा है ही नहीं, वह तो सूचना मात्र है.