डा. दुर्गाप्रसाद अग्रवाल का लेखन कल्पना का हिंदी लेखन
है कोई सुनने वाला?
सरकार बहादुर के बड़े-बड़े विज्ञापन कई बार नज़रों से गुज़रे थे, कि जन्म मृत्यु का पंजीकरण कराना आपका राष्ट्रीय दायित्व है, पर बहुत लम्बे समय से इस राष्ट्रीय दायित्व के निर्वहन का कोई अवसर नहीं आया था. अभी पिछले दिनों परिवार में एक सदस्य की वृद्धि हुई तो मुझे भी अपने राष्ट्रीय दायित्व के निर्वहन का यह सौभाग्य मिल गया. कैसे किया मैंने इस दायित्व का, निर्वहन, यह आप भी जान लें ताकि सनद रहे और वक़्त ज़रूरत काम आये.
दफ्तर में पहुंचने पर मुझे बताया गया कि हालांकि मैं अस्पताल से प्राप्त जन्म प्रमाण पत्र और एक अर्ज़ी, कि जन्म का पंजीकरण कर लिया जाए ले आया हूं, बेहतर होगा कि एक फॉर्म भी भर दूं. फॉर्म मांगने पर बताया गया कि वह दफ्तर के सामने खड़े चाय के ठेले पर मिल जाएगा. यह पूछना बेमानी था कि दफ्तर का फॉर्म चाय के ठेले पर क्यों मिलेगा, दफ्तर से ही क्यों नहीं, सो मैं पहुंचा चाय के ठेले पर. ठेलेवाले ने दो रुपये लेकर मुझे एक फोटोस्टेट पन्ना पकड़ा दिया. हर कोई जानता है कि बाज़ार में 50 से 75 पैसे तक में फोटोस्टेट हो जाता है. फॉर्म की इबारत कुछ खास नहीं थी. वही सब जो मैं अपनी अर्ज़ी में पहले से लिख कर लाया था. कहने की ज़रूरत नहीं कि चाय के ठेले पर फॉर्म 'सुलभ' कराने में दफ्तर के कर्मचारियों की भी कुछ खास दिलचस्पी रही होगी. शायद यह आउटसोर्सिंग का स्थानीय संस्करण था. खैर. फॉर्म भरा, बाबूजी को पेश किया. कोशिश तो उन्होंने की कि उसमें कुछ गलती वगैरह निकालें, पर निकाल नहीं पाये, सो फॉर्म उन्होंने टेबल पर पटका और कुछ ऐसा रुख अख्तियार किया कि मुझे वहां अपना खडा रहना ही बेमानी लगने लगा. आखिर मैंने ही पूछा कि मुझे प्रमाण पत्र कब मिलेगा. उन्होंने दो दिन बाद का इशारा अपनी हस्त मुद्रा से किया. मैंने पूछ लिया कि क्या प्रमाण पत्र प्रदान करने का कोई खास समय नियत है, तो उन्होंने फरमाया कि मैं कभी भी आ सकता हूं.
सावधानी बरतते हुए, बजाय दो दिन के चौथे दिन मैं जन्म प्रमाण पत्र प्राप्त करने के लिए दफ्तर पहुंचा. दो बाबू अगल-बगल बैठे कुछ सुरती गुटका वगैरह फांक रहे थे. मैंने एक से पिछला विवरण देते हुए कहा कि मुझे जन्म प्रमाण पत्र चाहिये, तो उसने दूसरे की तरफ इशारा कर दिया. दूसरे बाबूजी हालांकि यह सारा वार्तालाप सुन रहे थे पर उनकी सुविधा के लिए मैंने उनसे फिर अपना अनुरोध दुहराया. उन्होंने कुछ सवाल किये, और फिर सोच कर बताया कि ऐसा कोई प्रमाण पत्र उनके पास नहीं है. मैंने फिर अपना विवरण दुहराया और उनसे गुहार की कि वे ज़रा टटोल लें, ऐसा कैसे हो सकता है कि प्रमाण पत्र हो ही नहीं. तब उन बाबूजी का, जिनसे मैं पहले मुखातिब हो चुका था, कर्तव्य बोध जागा और उनके श्रीमुख से यह मधुर वाणी निसृत हुई कि प्रमाण पत्र बन गया है और उनके पास है. यह थोड़ी देर बाद समझ में आया कि उनकी अब तक की बेखुदी (बकौल चाचा मिर्ज़ा गालिब) बेसबब नहीं थी. मैं फिर उनके सामने था, और वे मेरे अस्तित्व से कुछ बाखबर, कुछ बेखबर अपने सामने पड़े पैडों (Pads) को इधर उधर करने का नाटक करने लगे, और दो एक प्रयासों के बाद ही हाथ में एक कागज़ कुछ इस अन्दाज़ में लेकर, जिसमें देने का कम और दिखाने का भाव ज़्यादा था, बोले कि यह रहा आपका प्रमाण पत्र! मैंने उनसे निवेदन किया कि इसे मुझे दे दीजिये! उन्होंने अपने पड़ौसी बाबू की तरफ देखा, जैसे उससे पूछ रहे हों कि बोल इसके साथ क्या सलूक किया जाए, और जब यह पाया कि मुझ पर इस बात की कोई प्रतिक्रिया नहीं है, तो निहायत बेशर्मी से बोले कि दे तो दूंगा पर पहले मिठाई तो खिलाइये. मैंने भी नासमझ बनने का नाटक करते हुए कहा कि ठीक है, ले आता हूं और मुड़ने लगा. उन्हें लगा कि यह मुर्गा तो हाथ से निकला जा रहा है, फौरन बोले कि अरे आप कहां तकलीफ करेंगे, आप तो रुपये ही दे दीजिये. मैंने पूछा कि वे कितने रुपये लेना चाहते हैं? फरमाया कम से कम सौ, और फिर जितनी आपकी सामर्थ्य और खुशी हो. मैंने कहा कि मेरी तो सामर्थ्य कुछ भी नहीं है, वे मुझे प्रमाण पत्र दे दें, तो बोले कि फिर आप शाम को आकर ले जाएं. प्रमाण पत्र शाम को ही दिए जाते हैं. मैंने कहा कि ऐसा पिछली बार तो मेरे पूछने पर भी नहीं बताया गया था, पर यह बात उन्होंने सुनी ही नहीं. सुनते भी क्यों? प्रमाण पत्र वे अपने बस्ते में रख चुके थे.
तै मुझे करना था कि उन्हें मिठाई खाने के लिए रूपये दूं या लगभग उतने ही या उससे भी ज़्यादा रूपये का पेट्रोल जला कर शाम को वापस आऊं. बाहर निकला, सोचा बड़े साहब से भी मिल लिया जाए, पर वे हस्बमामूल तथाकथित दौरे पर थे. मेरे सामने एक द्वंद्व की स्थिति थी. एक तरफ यह विकल्प कि बाबूद्वय को मिठाई के रूपये दूं, प्रमाण पत्र प्राप्त करूं और घर जाऊं, या अपने आदर्श को वरीयता दूं, प्रमाण पत्र वितरण के निर्धारित समय पर वापस आऊं. पर क्या पता तब ये बाऊजी ही कहीं टूर पर निकल जाएं, या यह बना-बनाया जन्म प्रमाण पत्र ही कहीं खो जाए. मिले ही नहीं. तो?
आखिर जीत मेरी व्यावहारिक भावना की ही हुई, बाबूजी को पचास रूपये दिये, एक दम खुले आम. उन्हें कोई अपराध बोध नहीं था. यह रिश्वत थोड़े ही थी जो लेते हुए उन्हें कोई अपराध बोध होता. यह तो ‘मिठाई’ थी जो मैंने अपनी ‘खुशी’ से उन्हें खिलाई थी. अलबत्ता मैं शर्मसार था. पता नहीं इस बात पर कि मैंने अपनी खुशी की कीमत बहुत कम आंकी, या इस बात पर कि मैंने कोई लड़ाई नहीं लड़ी, या इस बात पर कि बेवजह ही बेचारे दो शरीफ बाबुओं को, जो खासे बुज़ुर्ग भी थे, अपनी खुशी में शरीक कर उनके शुगर लेवल में इज़ाफा कर उनकी सेहत से खिलवाड़ किया.
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पिछले दिनों राजस्थान के तीन अलग अलग शहरों- जयपुर, जोधपुर और उदयपुर में एकदम एक-से अनुभव हुए तो ट्रकों पर लिखा वह नारा याद आ गया ' कश्मीर से कन्या कुमारी तक भारत एक है '. क्योंकि तीनों अनुभव एकदम एक-से हैं, उनकी चर्चा अलग-अलग न कर एक साथ ही कर रहा हूं.
जब भी आप कोई भू-सम्पदा (ज़मीन या मकान) खरीदते/बेचते हैं, आपको उसकी रजिस्ट्री करवानी होती है.यह काम पंजीयन एवम मुद्रांक विभाग द्वारा किया जाता है. विभाग सम्पत्ति के मूल्यानुसार स्टैम्प शुल्क तथा कुछ अन्य शुल्क लेता है और विधिवत इनकी रसीद दी जाती है. सम्पत्ति के विक्रय/क्रय केलिए कानूनी दस्तावेज लिखा जाता है जिसके लिए किसी वकील की सेवा सशुल्क लेनी होती है. यहां तक तो ठीक है. घपला इसके बाद शुरू होता है. इस तरह का काम करने वाले वकील अपनी फीस के अलावा कम से कम चार-पांच सौ रुपये और लेते हैं, यह कह कर कि रजिस्ट्री दफ्तर में हर बाबू को कुछ न कुछ देना होता है. वहां का महौल देख कर भी ऐसा ही लगता है. सब कुछ बंधा-बंधाया, पहले से तै शुदा. वकील को भी पता है और उसे भी जो काम कर रहा है. वकील साहब जाएं तो काम सुगमता से हो जाए, उनके बगैर आप जाएं तो फिर चक्कर ही लगाते रहें. और वकील साहब का मतलब यहां है तै शुदा रिश्वत का आदान-प्रदान करने वाला शख्स. इन उस्तादों ने व्यवस्था ही कुछ ऐसी बना ली है कि अगर आप समय बर्बाद न करना चाहें तो वैसे ही करें जैसा वे चाहते हैं. अगर ज़रा भी ना-नुकर की तो आपका काम टालने के अनेकानेक बहाने हैं. बकौल गीतकार कुछ नये कुछ पुराने हैं. आप घूमते रहिये.
कभी रजिस्ट्रार के दफ्तर में जाकर देखें. सुबह से लेकर शाम तक रजिस्ट्री करवाने वालों का तांता लगा रहता है. हर काम वकील के माध्यम से ही होता है, और बतर्ज़ ठण्डा मतलब.., वकील मतलब 'सबका बंधा हुआ है'. एक रजिस्ट्री के काम में कोई सात-आठ बाबू, दो-तीन चपरासी अपनी भूमिका अदा करते हैं. अगर एक दिन में सौ रजिस्ट्री भी होती हों और हर रजिस्ट्री पर चार सौ रुपया ऊपर से दिया लिया जाता हो, तो हुए चालीस हज़ार. इन्हें दस लोगों में बांट दें. हर आदमी के हिस्से में आये चार-चार हज़ार. चार हज़ार रुपये प्रतिदिन ऊपर की आमदनी ! कहना अनावश्यक है, इन सबको सरकारी खज़ाने से तनख्वाह तो मिलती ही है. ऊपर की आमदनी, अगर महीने में बीस कार्य दिवस भी मानें तो, हुई अस्सी हज़ार. एक साल की हुई नौ लाख साठ हज़ार....
यह सारा हिसाब उस काम का है जो एकदम सही और नियमानुसार है.अगर आप कोई गलत काम करवाना चाहें तो उसके तो रेट अलग हैं ही. उसकी बात मैं फिलहाल कर भी नहीं रहा. अगर गलत काम कर कोई फायदा उठा रहा है तो उसकी कीमत भी वह चुका रहा है. यह बात अलग है कि इस तरह सरकार को चूना लगता है.. यह सारा मामला अलग से चर्चा की अपेक्षा रखता है, इसलिए इसको यहीं छोड़ अपने मूल मुद्दे पर लौटता हूं.
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क्या यह तकलीफदेह, चिंताजनक और शर्मनाक नहीं है कि जो काम एकदम वाजिब और नियमानुसार है, और जो सहजता-सुगमता से हो जाना चाहिये, उसे करवाने के लिए भी आपको रिश्वत देनी पड़ती है? और जब आप वाजिब काम के लिए भी रिश्वत देने के लिए विवश होते हैं तो आप केवल अपनी जेब ही हल्की नहीं करते हैं, अपनी नैतिकता,अपना स्वाभिमान भी दांव पर लगाते हैं. वो जो कहा जाता है कि रिश्वत लेने वाला ही नहीं, देने वाला भी उतना ही ज़िम्मेदार होता है, तो आप भी अनचाहे और मज़बूरी में रिश्वत के इस पापाचार में शरीक होते हैं.
लेकिन आपके पास रास्ता क्या है?
है कोई आपकी सुनने वाला?
साहिर याद आते हैं : ‘जिन्हें नाज़ है हिन्द पर वो कहां हैं?’