डा. दुर्गाप्रसाद अग्रवाल का लेखन कल्पना का हिंदी लेखन

क्या भूमिका ज़रूरी है?

हमारे यहां पुस्तकों के साथ भूमिका या प्राक्कथन या दो शब्द लिखवाने-छपवाने का आम रिवाज़ है. प्राय: रचनाकार अपनी विधा के किसी बड़े, नामी रचनाकार से भूमिका लिखवाता है. बड़ा रचनाकार भी अक्सर अपना पारम्परिक धर्म निबाहते हुए आगे के पन्नों में संकलित रचनाओं की प्रशंसा में कुछ न कुछ कह देता है. इस बात को पाठक भी जानता है. ऐसा बहुत कम होता है कि भूमिका से रचना को बेहतर तरीके से समझने में कोई मदद मिले. कृति साहित्य (कहानी-कविता आदि) को लेकर यह सवाल भी मन में उठना स्वाभाविक है कि उसके साथ भूमिका की आवश्यकता ही क्या है? वैसे यह बात कृति साहित्य ही नहीं अन्य सारे लेखन पर भी आयद होती है. जो बात कहनी है वह मूल लेखन ही क्यों न कहे? भूमिका लेखक क्यों बीच में आए? उसके हस्तक्षेप का क्या औचित्य है? और अगर यह महज़ एक रस्म अदायगी ही है, एक औपचारिकता का निर्वाह ही है, तो भी क्यों है? इन और ऐसे ही सवालों पर विचार करते हुए अनायास ही एक प्रसंग पर नज़र गई.

हिन्दी के एक अत्यंत सुपरिचित और प्रतिष्ठित रचनाकार रहे हैं श्री प्रफुल्ल चंद्र ओझा 'मुक्त'. हरिवंश राय बच्चन ने अपनी आत्मकथा में उनका बहुत विस्तार से ज़िक्र किया है. ओझा जी वैसे तो इलाहाबाद के रहने वाले थे किंतु कुछ समय वे बनारस भी रहे. उसी दौरान उनकी कुछ कहानियां बनारस के ‘दैनिक आज’ में छपीं और उनकी तरफ जयशंकर प्रसाद का भी ध्यान गया. प्रसाद जी ने इन कहानियों की प्रशंसा शांतिप्रिय द्विवेदी से की और द्विवेदी जी ने यह बात ओझा जी को बताई. ओझा जी का प्रसन्न होना स्वाभाविक ही था. फिर ओझा जी और प्रसाद जी की भेंट हुई, और इनकी आत्मीयता बढ़ती गई. ओझा जी इलाहाबाद लौट आए.

कुछ समय बाद ओझा जी ने अपनी कहानियों का पहला संग्रह प्रकाशित करवाना चाहा. उनके मन में आया कि इस संग्रह की भूमिका प्रसाद जी लिखें. प्रसाद जी इनकी कहानियों की सराहना कर ही चुके थे. ओझा जी को लगा कि अगर प्रसाद जी भूमिका लिख देंगे तो कहानियों को गौरव मिल जाएगा. यही सोच कर एक दिन वे कहानियों के छपे पृष्ट लेकर प्रसाद जी के पास बनारस चले गए. प्रसाद जी बहुत आत्मीयता से मिले. लेकिन जब ओझा जी ने उनसे अपने कहानी संग्रह के लिए भूमिका लिखने का अनुरोध किया तो प्रसाद जी ने एकदम से मना कर दिया. उन्होंने कहा, "कहानी को भूमिका की अपेक्षा क्यों होनी चाहिये? कहानी अगर अपने आप को स्वयं अभिव्यक्त नहीं कर सकती, तो वह चाहे जो कुछ हो, कहानी नहीं है. आप तो बहुत अच्छी कहानियां लिखते हैं, उनकी भूमिका भला क्या हो सकती है?"

निश्चय ही ऐसा उत्तर ओझा जी को अपेक्षित न था. उनके मन को ठेस तो लगी लेकिन फिर भी हिम्मत करके उन्होंने अपने आग्रह को दुहराया. प्रसाद जी फिर भी अपनी बात पर दृढ़ थे. उन्होंने कहा, “किसी लेखक की रचना की भूमिका कोई अन्य व्यक्ति लिखे यह बात मेरी समझ में नहीं आती. आखिर भूमिका लिखी क्यों जाती है? मेरा विचार है कि किसी रचना को भूमिका की अपेक्षा तभी होती है, जब लेखक अपनी मूल संकल्पना से रचना का सूत्र जोड़ने का संकेत पाठक को देना चाहता है. यह तो स्वयं लेखक ही कर सकता है. किसी और व्यक्ति के लिए यह कैसे सम्भव हो सकता है? लेकिन ऐसी भूमिका भी किसी जटिल या दुरूह विषय के लिए ही आवश्यक है - कविता कहानी के लिए नहीं. दूसरों से भूमिका अक्सर इसलिए लिखवाई जाती है कि कोई जाना- माना व्यक्ति मेरी रचना की प्रशंसा करके पाठक को प्रभावित कर दे. मेरे विचार से यह तरीका अनुचित भी है और व्यर्थ भी. क्योंकि भूमिका से प्रभावित होकर पाठक रचना को भी पढ़ेगा ही और यदि रचना, भूमिका के अनुरूप, प्रशंसनीय नहीं है तो वह भूमिका, रचनाकार के लिए और भूमिका लेखक के लिए भी अप्रतिष्ठा का कारण बनेगी. इसके विपरीत, यदि रचना वस्तुत: श्रेष्ठ और प्रशंसायोग्य है तो उसे भूमिका लेखक की दलाली की ज़रूरत क्यों हो? पाठक रचना पढ़ेगा, मुग्ध होगा और स्वत: उसे सराहेगा.” इसी के साथ प्रसाद जी ने ओझा जी को यह भी कहा कि वे स्वयं भी अपनी पुस्तकों की भूमिका नहीं लिखते, "हां, अपनी कुछ पुस्तकों में वैदिक, पौराणिक या ऐतिहासिक कथा-सूत्र का संकेत देने के लिए या विचार-सरणि के स्पष्टीकरण के लिए मैंने कुछ शब्द अवश्य लिखे हैं."

ओझा जी फिर भी यह लोभ नहीं छोड़ पा रहे थे कि प्रसाद जी उनकी पुस्तक की भूमिका लिख दें. उन्होंने फिर आग्रह किया. यह तक कह दिया कि “मैं बड़ा विश्वास लेकर आपके पास आया था. आपने मेरी कहानियों की प्रशंसा की थी. यदि आप कुछ शब्द लिख देंगे तो मेरी कहानियों का गौरव बढ़ेगा.” लेकिन प्रसाद जी अपने निर्णय पर दृढ़ थे. उनका जो उत्तर था, वह आज भी बहुत महत्वपूर्ण है: “क्षमा कीजियेगा, मैं यह बात नहीं मानूंगा. आपका गौरव आपकी कहानियों से ही बढ़ सकता है, मेरे लिखने से नहीं. मैं जानता हूं कि मेरी अस्वीकृति से आपको कष्ट हो रहा है. आप विश्वास मानें, बार-बार आपके आग्रह को अस्वीकार करने से मुझे उससे भी अधिक कष्ट हो रहा है. फिर भी मैं भूमिका नहीं लिखूंगा.....सम्भव है, अभी आपको मेरी यह बात अप्रिय लगे, लेकिन भविष्य में कभी आप मेरी बात का औचित्य समझ पाएंगे.”

आज जब मैं किसी कहानी संग्रह, किसी कविता संग्रह के साथ छपी कोई भूमिका पढ़ता हूं तो ये शब्द मेरे मन में गूंजने लगते हैं. अक्सर तो यही होता है कि पहले मैं मूल पुस्तक पढ़ता हूं, उसके बाद भूमिका पढ़ता हूं. फिर मन ही मन भूमिका लेखक के विचारों की अपनी प्रतिक्रिया से तुलना करता हूं. प्राय: भूमिका लेखक की उदारता की सराहना करने की इच्छा होती है. लेकिन, मन में यह खयाल ज़रूर आता है कि इस उदारता से लेखक को क्या लाभ हुआ है? और मुझ जैसे पाठक को भी?

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