डा. दुर्गाप्रसाद अग्रवाल का लेखन कल्पना का हिंदी लेखन

परदेस में निकला चांद

राही मासूम रज़ा की पंक्तियां हैं : "हम तो हैं परदेस में, देस में निकला होगा चांद." जब आप देश में होते हैं तो आपका एक बडा सपना होता है कि विदेश जाएं, और जब विदेश पहुंच जाते हैं तो अपना देश कुछ ज़्यादा ही याद आने लगता है. देश की हर बात याद आने लगती है. पिछले दिनों हिन्दी की सुपरिचित लेखिका मृदुला गर्ग अमरीका आईं तो उन्हें यहां की बेहद-बेहद सफाई के बीच भारत की धूल-मिट्टी की याद बेचैन कर गई. अमरीका में, या किसी भी देश में रह रहे भारतीय भारतवासी भारतीयों से ज़्यादा भारतीय हो जाते हैं. परदेस में हो रहा हर भारतीय आयोजन उन्हें अपने देश के थोड़ा निकट ले जाने वाला अवसर बन जाता है.

ऐसा ही कुछ अनुभव हुआ मुझे सिएटल में 'जगजीत सिंह नाइट' में जाकर. अब यह कहना तो कोई माने नहीं रखता कि जगजीत मेरे पसन्दीदा गायक हैं. भारत में शायद ही कोई हो जिसे जगजीत की गायकी पसन्द न हो. इस मुकाम तक पहुंचने में जगजीत को कम से कम चालीस साल लगे हैं. चार दशकों की कड़ी मेहनत और इस दौरान अर्जित अनुभव उनकी गायकी और स्टेज प्रस्तुस्तियों में बहुत साफ परिलक्षित होते हैं.

जब हमारा अमरीका आने का कार्यक्रम बन रहा था तभी अमरीका में जगजीत नाइट का प्रचार शुरू हो गया था. बेटी चारु को जगजीत के प्रति हम दोनों की दीवानगी का पता है, इसलिये उसने हमारे लिये दो टिकिट तुरंत ही खरीद कर रख लिये. उसके प्रसव की सम्भावित तिथि भी वही थी जो इस कंसर्ट की थी, इसलिये यह तो तय ही था कि बेटी- दामाद इस शाम का लुत्फ नहीं ले पाएंगे.

अमरीका आने वाले हर भारतीय की तरह हम भी इस मर्ज़ के शिकार हैं कि हर डॉलरी अमरीकी मूल्य को भारतीय मुद्रा में तब्दील कर भारत की कीमत से तुलना कर, जैसी भी स्थिति हो, दुःखी, चकित, गर्वित होते हैं. इसलिये जब विमला के कई बार और कई तरह से पूछ्ने के बाद चारु ने बताया कि इस शो के एक टिकिट का मोल साठ डॉलर है, तो हमने मन ही मन सुना- तीन हज़ार रुपये, और किंचित दुखी हुए. कुछ माह पहले ही जगजीत को जयपुर में पांच सौ रुपये का 'महंगा' टिकिट खरीद कर सुन चुके थे. पर यह अमरीका है !

14 मई को चारु ने बेटी को जन्म दिया. हम लोग अस्पताल में ही थे, पर जाने कब उसने अपने साथी नरेश जैन से गुपचुप बातकर यह व्यवस्था कर दी कि नरेश इस साढ़े सात बजे वाले शो के लिये हमें लेने छः बजे अस्पताल आ पहुंचे. अब यहीं यह भी चर्चा कर दूं कि दुनिया कितनी छोटी और गोल है ! नरेश के दादाजी से सिरोही में मेरी अच्छी मित्रता रही है. मुकेश के स्वर्गीय पिताजी का भी नरेश के इस परिवार से गहरा अपनापा था. फिर संयोग यह बना कि राजस्थान की पूर्व-इंजीनियरिंग परीक्षा (पी ई टी) में उत्तीर्ण होने पर नरेश और चारु एक साथ ही सिरोही से उदयपुर काउंसिलिंग के लिये गये. पढे अवश्य अलग-अलग कॉलेजों में. और अब नरेश, मुकेश और चारु तीनों ही माइक्रोसॉफ्ट में काम करते हुए भारत का नाम रोशन कर रहे हैं. एक और संयोग यह भी कि नरेश का परिवार जयपुर में रहता है, हम भी. तो, इस नरेश के साथ अपने अस्पताल से कोई पचास किलोमीटर दूर मूर थिएटर के लिये रवाना हुए.

मूर थिएटर डाउनटाउन सिएटल में स्थित है. जब हम पहुंचे तो घडी ठीक साढे सात बजा रही थी. हॉल के बाहर का दृश्य देखकर भ्रम हुआ कि कहीं हम भारत में ही तो नहीं हैं. इतने सारे भारतीय एक साथ! ये भारत में इतने भारतीय नहीं होते. यहां अपने पहनावे में ये भारत की तुलना में ज़्यादा भारतीय थे. वहां ये लोग भले ही जींस वगैरह में होते, यहां ज़्यादातर लोग पारम्परिक भारतीय वेशभूषा में, यानि साड़ी, सलवार सूट, कुर्ता पाजामा वगैरह में थे.

जो टिकिट हमारे पास थे उनमें बाकायदा यह अंकित था कि हमें आयल (Aisle) 3 से प्रवेश करना है और S कतार में हमारी सीट नम्बर 2 व 3 है. पर वहां तक पहुंचने के लिये खासी मशक़्क़त करनी पडी. थिएटर की लॉबी में इतनी भीड थी कि आगे बढ पाना ही मुश्क़िल था. लोगों के हाथों में प्लेटें थीं, प्लेटों में समोसे, छोले, टिक्की वगैरह और चारों तरफ थी भारतीय पकवानों की जानी पहचानी खुशबू.

हाल-चाल पूछे जा रहे थे, ठहाके लग रहे थे, चटखारे लिये जा रहे थे. ऐसा भारतपन भला रोज़-रोज़ कहां नसीब होता है! इस सात समुद्र पार के विलायत में बडी इंतज़ार के बाद यह शाम उतरी थी और इसने इस मूर थिएटर को एक मिनी हिन्दुस्तान में तब्दील कर दिया था. इस बहुत इंफार्मल एट्टीट्यूड वाले देश में जैसा देस वैसा भेस बनाकर रह रहे भारतीय आज अपने पूरे रंग में थे. महिलाओं ने तो मानो अपने गहनों-कपडों की नुमाइश ही लगा दी थी.

हम जैसे-तैसे अपनी सीटों तक पहुंचे. थिएटर कुछ पुराना-सा था, ज़्यादा ही भव्य. वरना यहां के थिएटर (भारत की तुलना में) बहुत सादे होते हैं. जगजीत मंच पर आ चुके थे. प्रारम्भिक औपचारिकताएं भी शायद पूरी की जा चुकी थीं. बहुत हल्के-फुल्के अन्दाज़ में उन्होंने अपने साथी संगतकारों का परिचय कराया. हर कलाकार के लिये तालियां और सीटियां बजती रहीं, और इस सबके बीच ही जगजीत ने गाना शुरू कर दिया.

जगजीत की गायकी का क्या कहना! उसके जादू का असर न हो, यह मुमकिन ही नहीं. वे एक के बाद एक गज़ल सुनाते गये. कब डेढ़ घण्टा बीत गया, पता ही नहीं चला. पंद्रह-बीस मिनिट का मध्यांतर हुआ, लोग फिर खाने और मिलने-जुलने पर टूट पड़े. फिर काफी देर तक गाने के बीच लोगों का आना-जाना चलता रहा. जगजीत ने फिर डेढ़ घण्टा गाया, और अचानक शो समाप्त. जगजीत अक्सर ऐसा ही करते हैं.

यह कहने की कोई ज़रूरत नहीं कि जगजीत ने अच्छा गाया. यह भी कहने की ज़रूरत नहीं कि उन्होंने श्रोताओं के मूड के अनुरूप गाया. यहां जो श्रोता थे वे सब बहुत गम्भीर श्रोता नहीं थे. जगजीत खुद एम टीवी पर अपने एक इंटरव्यू में कह चुके हैं कि उनके कंसर्ट में कुछ श्रोता ऐसे होते हैं जिनका संगीत से कोई वास्ता नहीं होता. वे महज़ इसलिये होते हैं कि अगले दिन यह दिखावा कर सकें कि वे भी कल यहां थे! कुछ श्रोता प्रारम्भ से ही काफी 'उच्च अवस्था' को प्राप्त थे. थिएटर में भी एक बार (Bar) था. जो घर से उच्च अवस्था को प्राप्त होकर नहीं आये थे, उनमें से अनेक यहां उस अवस्था को प्राप्त हो गये. और जब आप उस महान अवस्था को प्राप्त हो चुके हों तो आपके लिये 'आहिस्ता-आहिस्ता' और 'मिट्टी दा बाबा' में कोई फर्क न रह जाये, यह स्वाभाविक ही है. ‘मिट्टी दा बाबा' जगजीत की बहुत प्रिय रचना है. वे गाते भी इसे पूरे दर्द के साथ हैं. शायद उन्हें अपना विवेक ही याद आ जाता हो, इसे गाते वक़्त. इसलिये जब इस गीत पर भी लोग सीटियां, तालियां और चुटकियां बजाने लगे तो जगजीत यह याद दिलाये बगैर नहीं रह सके कि यह 'उस तरह' का गीत नहीं है! मेरी अगली क़तार में बैठे एक सज्जन हर गीत के खत्म होते न होते 'दरबारी' की फरमाईश कर रहे थे. बा-आवाज़े-बुलन्द. मज़े की बात यह कि जब जगजीत ने वाकई दरबारी गाना शुरू किया, तब भी वे मांग कर रहे थे - दरबारी! मेरे ठीक आगे एक युवक हर गीत पर जिस तरह अपना हाथ उठाकर अपने आह्लाद का प्रदर्शन कर रहा था उससे शुरू-शुरू में तो मुझे लगा कि यही उसका फेवरिट नगमा होगा, पर पंद्रह-बीस गीतों पर उसकी एक-सी प्रतिक्रिया देखकर मुझे उसकी जवानी पर ही ज़्यादा लाड़ आया. और, जवानी में समझ होती ही कहां है? मेरी दांयी तरफ से एक बुज़ुर्ग सज्जन कभी-कभी 'गालिब' की गुहार लगा देते थे. उनकी आवाज़ तो मंच तक नहीं पहुंची पर जगजीत ने उनकी शाम सार्थक ज़रूर कर दी. जगजीत गालिब को गा रहे थे, मैं उन सज्जन को देख फिराक़ को स्मरण कर रहा था-

आए थे हंसते खेलते मैखाने में फिराक़

जब पी चुके शराब, संजीदा हो गये!

जगजीत बहुत हल्के मूड में थे. श्रोताओं से चुहल करते जा रहे थे. साउंड सिस्टम पर खफा होने का उनका चिर-परिचित अन्दाज़ यहां भी बरक़रार था. एक शो-मैन के रूप में वे मंज चुके हैं. और इस मंज जाने की अपनी सीमाएं होती हैं जो यहां साफ दृष्टिगोचर थी. जगजीत ने वे ही सारी चीज़ें सुनाईं जो वे हर कंसर्ट में सुनाते हैं. नई और गम्भीर चीज़ें सुनाने की रिस्क क्यों ली जाये? एक मुकाम पर आकर शीर्ष पर टिके रहने की चाह आपकी एक ऐसी मज़बूरी बन जाती है जो कुछ भी नया और बेहतर करने की आपकी प्रयोगशीलता को बाधित करती है. जगजीत ने अच्छा गाया, पर वे बेहतर गा सकते थे.

जो लोग इस कंसर्ट में आये, उनमें जगजीत की गायकी के प्रति अनुराग से ज़्यादा अपनी धरती की महक की ललक थी. तीन-चार घण्टों के लिये एक हिन्दुस्तान ही बन गया था वहां. अगर यह कहना अशिष्टतापूर्ण न लगे तो कहूं कि वही अस्तव्यस्तता, वही धक्का-मुक्की, वही गर्मजोशी, वही अपनापा, वही सब कुछ जो अपने देश में होता है !

दरअसल, यह भी परदेश में रहने की एक भावनात्मक ज़रूरत होती है. आप घर वालों से बातें कर सकते हैं, उनके समाचार पा सकते हैं, घर में हिन्दुस्तानी खाना खा सकते हैं पर आपके चारों तरफ तो अमरीका ही होता है ना , जो चाहे कितना ही अच्छा क्यों ना हो, अपना तो नहीं होता. इसी ‘अपने’ की तलाश, अपनी धरती का मोह भारतीयों को इस तरह के आयोजनों में खींच लाता है. यही कारण है कि यह शो बीस दिन पहले ही सोल्ड आउट (Sold out) हो चुका था. ऐसे में, किसने क्या गाया, और किसने क्या सुना, इसका कोई खास मतलब नहीं रह जाता. असल बात यह थी कि जगजीत के इस कंसर्ट के बहाने यहां इस सिएटल शहर में भी चन्द घण्टों के लिये वही चांद निकल आया था जिसे याद कर राही मासूम रज़ा उदास हुए थे.

इस चांद के तिलिस्म से बाहर निकले तो रात के साढे ग्यारह बज रहे थे. काफी सर्द रात थी पर मूर थिएटर के उस इलाके में हस्ब-मामूल चकाचौंध बरक़रार थी. बहुमंज़िला इमारतों, शानदार व्यावसायिक प्रतिष्ठानों और तेज़ भगती कारों की हेडलाइट्स की चौंध. बल्कि इससे भी कुछ ज़्यादा. सड़क पर बिखरी भारतीय सुन्दरियों के आभूषणों की, उनके चमचमाते झिलमिलाते वस्त्रों की और इन सबसे ज़्यादा अभी-अभी ‘भारत से लौटकर आये’ उनके प्रफुल्लित चेहरों की उल्लासपूर्ण आभा इस चमक को और बढा रही थी.

इस चकाचौंध के घेरे से बाहर निकल, कुछ दूर चले तो हमें और दिनों की बनिस्बत अमरीकी आकाश आज कुछ कम चमकदार लगा.

निकले हुए चांद को हम पीछे जो छोड़ आये थे!

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