डा. दुर्गाप्रसाद अग्रवाल का लेखन कल्पना का हिंदी लेखन
स्वयंप्रकाश: साढे तीन दशक का दोस्ताना
तारीख और साल ठीक से याद नहीं, लेकिन मंज़र ज्यों का त्यों मन के पर्दे पर अंकित है. मैं चित्तौड कॉलेज में हिन्दी प्राध्यापक था. एक दिन (अनुमान करता हूं कि '70 के आसपास की बात है) किसी ने घर की कॉल बैल बजाई. देखा, धर्मेन्द्र जैसा एक युवक है. सदाशिव श्रोत्रिय का घर तलाश रहा था. मैं भी कॉलेज में पढाता हूं इस कारण मेरे घर की घण्टी बजा दी. सदाशिव जी उसी कॉलेज में अंग्रेज़ी पढाते थे, और पास ही रहते थे. दिल के तो और भी ज़्यादा पास. मकान का पता बताने के सिलसिले में जाना कि पता पूछने वाला युवक स्वयंप्रकाश हैं. स्वयंप्रकाश के नाम से तब तक मैं सदाशिव श्रोत्रिय के कारण ही अधिक परिचित था, हालांकि स्वयंप्रकाश एक लेखक के रूप में खासे ख्यात हो चुके थे. उसी शाम सदाशिव जी ने हमें भी अपने घर बुला लिया और तब पहली बार ठीक से स्वयंप्रकाश से मुलाक़ात हुई. उस शाम स्वयंप्रकाश ने सदाशिव जी के घर के बाहर वाले चौक में बहुत सारे गीत-गज़ल सुनाए. रात भी है कुछ भीगी-भीगी, चांद भी है कुछ मद्धम मद्धम आज भी जब सुनता हूं तो मुझे लता मंगेशकर की बजाय स्वयंप्रकाश की आवाज़ में ही सुनाई पडता है. उस शाम और रात स्वयंप्रकाश ने बहुत सारी चीज़ें सुनाई. शायद मेहदी हसन की गाई कुछ गज़लें, किशोर कुमार के कुछ गीत, गोपाल सिंह नेपाली की एक कविता...
1974 में मेरा तबादला चित्तौड से सिरोही हो गया. सदाशिव श्रोत्रिय का बहुत प्यारा साथ छूट गया. बल्कि यों कहूं कि चित्तौड छोडने से बडा दर्द सदाशिव जी के सान्निध्य से वंचित होने का था, तो ज़रा भी अतिशयोक्ति नहीं होगी. लेकिन नौकरी तो नौकरी है. अनमने मन से सिरोही आना पडा. जैसे तैसे व्यवस्थित हुए. अच्छा भी लगने लगा. इतना कि नौकरी और उम्र के कोई 25 साल उस कस्बे में गुज़र गए. लेकिन वह तो अलग किस्सा है. पता चला कि स्वयंप्रकाश पास ही के कस्बे सुमेरपुर में, जो सिरोही से महज़ 40 किलोमीटर की दूरी पर है, टेलीफोन विभाग में आर एस ए पद पर कार्यरत है. उन दिनों टेलीफोन आज की तरह आम नहीं खास था. टेलीफोन किसी आपात स्थिति में ही किया जाता था. खैर. स्वयंप्रकाश से सम्पर्क हुआ. कभी हम दोनों, बल्कि हमारे दोनों बच्चों को भी तो याद करें, चारों सुमेरपुर चले जाते, और कभी स्वयंप्रकाश सिरोही आ जाते. मेरा किराये का घर ऐसी जगह था कि मुम्बई से सुमेरपुर की तरफ जाने वाले वाहन ऐन मेरे घर के सामने से ही गुज़रते. तो अक्सर ऐसा होता कि स्वयंप्रकाश सुमेरपुर से किसी ट्रक में बैठ कर मेरे घर के सामने उतरते, या मैं, घर के बाहर ही खड़ा होकर किसी ट्रक को हाथ देकर रुकवाता, और सुमेरपुर जा पहुंचता. हम लोगों ने स्कूटर खरीद लिया तो जब भी मन करता स्कूटर उठाते और सुमेरपुर जा पहुंचते. दोस्ती धीरे-धीरे परवान चढने लगी. चालीस किलोमीटर की दूरी जैसे कोई दूरी थी ही नहीं. जवानी भी तो थी. हमारी भी, स्वयंप्रकाश की भी.
उन दिनों न जाने कितनी बार स्वयंप्रकाश के साथ हमने अपने शांति नगर के उस छोटे-से घर के और भी छोटे कमरे में गीत-संगीत की महफिलें सजाईं. सिरोही के दोस्त जब भी इसरार करते, हम स्वयंप्रकाश को आवाज़ देते, और वे फौरन से पेश्तर चले आते. अपने उस छोटे-से कमरे में हमने स्वयंप्रकाश से उनका बहुत प्यारा गीत आज एक लडकी को नींद नहीं आएगी न जाने कितनी बार सुना है. उनकी अनेक क्रांतिकारी किस्म की कविताएं और भी बहुत सारी कविताएं, और कहानियां भी. नीलकांत का सफर को वे जिस बेहतरीन अन्दाज़ में सुनाते हैं, उसका तो कहना ही क्या. और मेहदी हसन, ग़ुलाम अली, जगजीत की बेशुमार गज़लें. तब तक मैं भी साहित्य से अधिक गहराई से जुड़ने लगा था. और आज यह निस्संकोच स्वीकार करना चाहूंगा कि इस जुडाव में स्वयंप्रकाश की बहुत बडी भूमिका थी. उन्होंने मेरे साहित्य के संस्कारों को और संवारा. साहित्य में विचारधारा के महत्व से परिचित कराया. और आज मेरा जुड़ाव प्रगतिशील विचारधारा से है तो इसका सारा श्रेय स्वयंप्रकाश के उन दिनों के साथ को है.
उन दिनों मेरे कॉलेज का हिन्दी विभाग भी बहुत सक्रिय था. हमने अनेक बार स्वयंप्रकाश को अपने विभाग के और कॉलेज के कर्यक्रमों में बुलाया. अक्सर बिना किराया तक दिये. पारिश्रमिक की तो बात ही क्या कीजिये. आज यह बात अजीब भी लगती है और मुझे लगता है कि यह मेरी मूर्खता भी थी. लेकिन थी, और की. स्वयंप्रकाश ने ऐसी मूर्खता करने की भरपूर छूट मुझे दी, और मैंने ली. उनसे भाषण करवाये, कविताएं सुनीं, पुरस्कार वितरित कराए. क्या-क्या नहीं किया. उन दिनों (अब स्वर्गीय) एम. के. भार्गव मेरे प्रिंसिपल थे. वे भी स्वयंप्रकाश से बहुत आत्मीयता रखते. अगर कुछ दिन बीत जाते तो खुद ही पूछ लेते कि क्या बात है स्वयंप्रकाश नहीं आए, और मैं संकोच से बताता कि आए तो थे, तो नाराज़ होते कि मिलवाया क्यों नहीं. अगर मेरे कॉलेज में कुछ भी खास होता तो स्वयंप्रकाश दौडे चले आते. मुझे याद आता है कि एक बार मैंने अपने कॉलेज में एम एस सथ्यु की अद्भुत फिल्म ‘गरम हवा’ का प्रदर्शन किया था. उससे अगले ही दिन स्वयंप्रकाश हमारे यहां आए. मैंने उनसे इस फिल्म का ज़िक्र किया तो वे भी इसे देखने को व्याकुल हो उठे. तब मैंने अपने कॉलेज के स्टाफ रूम में, रविवार के दिन ख़ुद प्रोजेक्टर चला कर उन्हें वह फिल्म दिखाई. मज़े की बात यह कि हिन्दी के प्रतिष्ठित लेखक स्वयंप्रकाश खुद तब तक हिन्दी के एम ए नहीं थे. लगभग उन्हीं दिनों उन्होंने यह इरादा किया कि वे हिन्दी में एम ए करेंगे. मेरे ही सिरोही कॉलेज से उन्होंने प्राइवेट विद्यार्थी के रूप में हिन्दी में एम ए किया. उन दिनों हमारे कॉलेज की लाइब्रेरी, खास तौर पर उसका हिन्दी खण्ड ऐसा था कि शायद पूरे राजस्थान में अन्यत्र कहीं नहीं था. स्वयंप्रकाश ने उसका भरपूर उपयोग किया. सिरोही एक छोटा-सा कस्बा था और अब भी है. वहां कुछ भी आपका निजी नहीं होता. स्वयंप्रकाश मेरे दोस्त हैं, यह सबको पता था. इस हद तक कि मेरी मां का निधन हुआ तो कॉलेज से, बिना मेरे कहे, मेरे ऑफिस सुपरिनटेण्डेण्ट मोहम्मद शब्बीर खान ने स्वयंप्रकाश को फोन कर यह सूचना दे दी, और स्वयंप्रकाश भी सुमेरपुर से सीधे सिरोही के श्मसान पहुंच गये. मुझे आज भी याद है, स्वयंप्रकाश के गले लगते ही मेरी रुलाई फूट पडी थी, जो तब तक अवरुद्ध ही थी.
दोस्ती के उन शानदार दिनों में स्वयंप्रकाश के अनेक मित्रों से भी हमारी दोस्ती हुई. शिवगंज (सुमेरपुर का जुडवां कस्बा) के सुपरिचित डॉक्टर एस पी पुरोहित से दोस्ती हुई, जो अब तक बरकरार है. सुमेरपुर में अंग्रेज़ी की अध्यापिका मंजु पाल से जो दोस्ती और पारिवारिकता उस वक़्त हुई वह समय के साथ और मज़बूत हुई है और मंजु आज भी हमारे परिवार की सदस्य बनी हुई है. दोस्ती के उन्हीं दिनों में स्वयंप्रकाश ने शादी भी की. पत्नी और मैं उनकी शादी में शरीक हुए. उनकी बारात में उनकी बहनों ने जो शानदार डांस किए उनकी स्मृति और साथ ही यह स्मृति भी कि जाने-माने कवि नन्द भारद्वाज को भी मैंने उसी अवसर पर नाचते देखा था, अब भी आह्लादित करती है. इसके बाद तो जितनी आत्मीयता स्वयंप्रकाश से थी उतनी ही उनकी पत्नी रश्मि से भी हो गई. सुमेरपुर जाकर उनका आतिथ्य ग्रहण करना हमारे लिए सदैव आकर्षण का विषय रहता, और हम बार-बार जाते. वे लोग भी इसी तरह हमारे यहां आते और हमारी ज़िन्दगी को खुशनुमा बनाते. उसी दौर में स्वयंप्रकाश को लगा कि उसने एम ए तो कर ही लिया है, अब हिन्दी में पी-एच डी भी कर ली जाए. मैंने अपने गुरु डॉ कृष्ण कुमार शर्मा जी से बात की तो उन्होंने सहर्ष अपनी सहमति प्रदान कर दी, और इस तरह मित्र स्वयंप्रकाश मेरे गुरु-भाई भी हो गए. हंसते-खेलते उन्होंने अपने नाम के आगे डॉक्टर लगाने का अधिकार भी अर्जित कर लिया. हंसते-खेलते इसलिए कि जो विषय उन्होंने चुना था ‘राजस्थान की हिन्दी कहानी’ उस पर उनका ज्ञान, अध्ययन और समझ उन्हें डी लिट्ट भी दिला सकती थी. डॉ कृष्ण कुमार शर्मा ने स्वयंप्रकाश को एक लेखक वाला मान देकर पी-एच डी कराई - यह बात मैं कभी नहीं भूलूंगा. वैसे, इससे उनकी विशाल हृदयता के साथ-साथ उनकी गुण ग्राहकता भी प्रमाणित होती है.
हिन्दी में एम. ए. और फिर पी-एच डी कर लेने के बाद स्वयंप्रकाश को लगने लगा कि उन्हें टेलीफोन विभाग की छोटी-सी दुनिया से बाहर निकलना चाहिए. और जल्दी ही वे निकल भी गए. हिन्दुस्तान ज़िंक में राजभाषा अधिकारी बन कर वे सुमेरपुर से और हमसे दूर चले गए. उदयपुर, जावर माइंस, सर्गीपल्ली(उडीसा) चन्देरिया-चित्तौडगढ वगैरह जगह-जगह घूमते रहे. जब वे सर्गीपल्ली थे उन्हीं दिनों श्रीमती गांधी की हत्या हुई थी. स्वयंप्रकाश ने उन उथल पुथल भरे और अमानवीय दिनों में अपनी एक रेल यात्रा का वर्णन करते हुए मुझे एक लम्बा पत्र लिखा था, बाद में इसी अनुभव पर उन्होंने अपनी एक अमर कहानी लिखी - क्या तुमने कभी कोई सरदार भिखारी देखा है. इन अनेक जगहों पर जाने से उनका अनुभव संसार और अधिक समृद्ध हुआ. सर्गीपल्ली को छोडकर सभी जगह हम उनके घर गए. जावर माइंस में उनके घर जाकर एक खास अनुभव हुआ, जो बाद में मेरे भी खासा काम आया.
जावर माइंस में हम उनके ड्राइंग रूम में बैठे थे. उनके एक सहकर्मी दम्पती आए. भद्र महिला उनकी बुक रैक देखने लगी. तभी उनकी नज़र एक किताब पर पड़ी जिस पर लेखक के रूप में अंकित था - स्वयंप्रकाश. भद्र महिला ने बहुत आश्चर्य से पूछा, “भाई साहब, यह किताब आपकी लिखी हुई है? आप लिखते भी हैं, हमें तो पता ही नहीं था.” और स्वयंप्रकाश ने इस बात को लगभग टाल-सा दिया. उन लोगों के जाने के बाद स्वयंप्रकाश ने हमें बताया कि वे अपनी नौकरी और अपने लेखन को अलग-अलग रखते हैं. यही कारण है कि उनके ज़्यादातर सहकर्मियों को यह पता नहीं है कि वे एक लेखक भी हैं. यहीं यह उल्लेख कर देना ज़रूरी है कि उस समय तक स्वयंप्रकाश राष्ट्रीय पहचान अर्जित कर चुके थे. स्वयंप्रकाश की यह बात मेरे भीतर भी कहीं जम गई, और काम तब आई जब मुझे जयपुर में आई ए एस अधिकारियों के साथ काम करने का मौका मिला. मैं अपने रचनाकर्म को घर रख कर नौकरी करने जाता रहा और ठीक-ठाक तरह से नौकरी कर सेवा निवृत्त हुआ. मुझे भी लगा कि नौकरी और लेखकी को अलग-अलग रखना ही ठीक है. जब आप लेखक हों, लेखकों के साथ हों, तो यह भूल जाएं कि आपका पद क्या है, और जब नौकरी कर रहे हों तो यह याद न रखें कि लेखक के रूप में आपका क़द क्या है. इसी में जीवन का सुख निहित है.
स्वयंप्रकाश जहां भी रहे मुझे लम्बे-लम्बे खत लिखते रहे. वे खत सूचनाप्रद होते, मनोरंजक होते और होते नए-नए विचारों से भरपूर. पत्रों में एक तरह से वे मेरी क्लास लेते. नई किताबों के बारे में बताते, नई देखी नई-पुरानी फिल्मों की चर्चा करते, खेलों पर टिप्पणी करते, वेज-नॉन वेज लतीफे शेयर करते, दीन- दुनिया की बातें करते, ज़िन्दगी की छोटी-छोटी बातों में मिलने वाले रस का और भी अधिक रसपूर्ण बयान करते, अपने नए अनुभवों को साझा करते और मेरे निकम्मेपन के लिए प्रताडित करते हुए मुझे साहित्यिक रूप से सक्रिय होने के लिए प्रेरित करते. मैंने उनसे इस बात के लिए तो अनेक बार डांट खाई है कि मैं बहुत संक्षिप्त पत्र लिखता हूं. नौकरी के अंतिम काल में हुए अनेक तबादलों में मेरी जो सबसे मूल्यवान क्षति हुई है वह स्वयंप्रकाश के उन पत्रों की ही है. बहुत सम्हालकर रखा था उन पत्रों को. लेकिन आखिर वे खो ही गए. अगर वे पत्र मेरे पास होते, तो मुझे यह लेख लिखने की बजाय उन पत्रों में से कुछ को उद्धृत करना ज़्यादा प्रभावशाली लगता. क़्या नहीं था उन पत्रों में? उम्मीद करता हूं कि अनेक मित्रों ने स्वयंप्रकाश के पत्रों को सम्हालकर रखा होगा.
स्वयंप्रकाश मेरे लिए तो फ्रेण्ड फिलोसॉफर और गाइड हैं ही, पत्नी विमला के लिए बहुत प्यारे देवर या छोटे भाई हैं, जिनसे भरपूर मज़ाक की जा सकती है और जिन्हें चाहे जो खिलाकर भरपूर सराहना पाई जा सकती है. हम दोनों से ज़्यादा हमारे बच्चे उन्हें चाहते हैं. विश्वास और चारु दोनों स्वयंप्रकाश के भक्त हैं. बेटा विश्वास प्राय: अपनी बातचीत में स्वयंप्रकाश के फिकरों और मुहावरों को इस्तेमाल कर लिया करता है. चारु तो उनके लिखे एक-एक शब्द को पी जाना चाहती है. स्वयंप्रकाश ने अपनी किताब दूसरा पहलू की प्रति मुझे नहीं, अपनी इस प्यारी बेटी चारु को ही देना पसन्द किया था. अब चारु अमरीका में रहती हुई भी अपनी तमाम व्यस्तताओं के बीच यह पूछ लेती है कि अंकल जी ने इधर नया क्या लिखा है? स्वयंप्रकाश को भी इन बच्चों और अब तो इनके बच्चों से भी, इतना ही लगाव है. बहुत सारी असुविधाएं झेलकर भी वह चारु की शादी में शरीक होने जालोर जैसी अटपटी जगह आया, और न केवल आया, अपनी उपस्थिति से पूरे माहौल को जीवंत बनाये रखा. उस मौके पर स्वयंप्रकाश ने जो एक अभूतपूर्व डांस किया उसकी वीडियो रिकॉर्डिंग मेरे एक मित्र ने कर ली थी. अगर उस क्लिप को श्यामक डावर देख ले तो वह खुद स्वयंप्रकाश का गण्डा बंद शागिर्द बन जाए. ऐसा मस्त डांस देखने का सौभाग्य जीवन में बहुत कम लोगों को मिला होगा. मेरी बेटी भाग्यशाली है कि उसके विवाह के अवसर पर हिन्दी के इतने बडे रचनाकार ने यह कमाल (और धमाल) किया.
वैसे मसखरी स्वयंप्रकाश के व्यक्तित्व का एक अभिन्न पक्ष है. उसके लेखन में तो यह खूब देखा ही जा सकता है. बल्कि अनेक आलोचकों ने उसकी भाषा के खिलंदडेपन को खास तौर पर रेखांकित किया है. पाठकों को तो यह अच्छा लगता ही है. उसके पत्रों में भी यह मसखरी खूब होती है. और रोज़मर्रा के व्यवहार में भी. मुझे याद आता है कि एक बार वह, शायद उदयपुर से, हमारे घर सिरोही आया. रात के दो-तीन बजे होंगे. हम लोग अपनी फाटक पर ताला लगा दिया करते थे. बाउण्ड्री वॉल कूद कर वह अन्दर आया, दरवाज़ा खटखटाया. कई बार खटखटाया. और जब आधे सोये--आधे जागे मैंने या पत्नी ने पूछा कौन? तो बडी गम्भीरता से बोला- ‘मैं चोर’. हम लोग एक बार तो कांप से गये. डरते-डरते सावधानी से दरवाज़ा खोला तो ज़ोर काठहाका,औरफिरचायकीचुस्कियां..
चाय और सिगरेट स्वयंप्रकाश को बे-इन्तिहा पसन्द है. चाय वह कभी भी, कहीं भी, कितनी ही बार पी सकता है. और सिगरेट, वह भी पनामा - वह तो उसे चाय से अधिक प्रिय है. लेकिन चाय को लेकर उसके मन में कोई नखरे का भाव मैंने कभी नहीं पाया. बल्कि, पिछले दिनों जब उससे मुलाक़ात हुई और मैं एक ठीक-ठाक से रेस्तरां में चाय पिलाने ले गया तो वह बलात मुझे वहां से बाहर निकाल लाया और फिर सडक किनारे एक ठेले वाले की मुड्डियों पर बैठकर चाय पीते हुए ही हमने डेढ दो घण्टे अपने सुख-दुख साझा किए. लेकिन इधर हाल ही में अपने स्वास्थ्य की स्थिति में आए बदलाव की वजह से उसने सिगरेट एकदम छोड़ दी है, और चाय बहुत कम कर दी है.
इधर स्वयंप्रकाश के जीवन का एक नया दौर और मोड़ उसे हमसे थोडा और दूर ले गया है. हिन्दुस्तान ज़िंक से स्वैच्छिक सेवा निवृत्ति लेकर अंतत: उसने फिर अपनी जड़ों की तरफ लौटने का फैसला कर लिया. राजस्थान छोडकर फिर बैतलवा भोपाल जा बैठा. कुछ नई तरह से ज़िन्दगी शुरू करने की उसकी व्यस्तताएं और कुछ मेरी अपनी व्यस्तताएं. चिट्ठी पत्री का सिलसिला लगभग टूट-सा गया है. मिलना-जुलना भी कम हो गया है. अंकिता की शादी में उसने बुलाया और हम लोग भी बहुत दिनों से योजना बना रहे थे कि इस मौके पर तो भोपाल जाएंगे ही, लेकिन नहीं जा पाए. स्वयंप्रकाश और रश्मि ने इसका बुरा क्यों नहीं माना होगा? मानना ही चाहिए. अब तो कभी-कभार औरों से उनके समाचार मिलते हैं. अब उम्र के जिस मोड़ और मुकाम पर हम हैं, वहां उन बीते खूबसूरत दिनों को याद करते हुए स्वयंप्रकाश के ही एक कहानी संग्रह का शीर्षक थोडे से परिवर्तन के साथ दुहराने का मन करता है : आएंगे अच्छे दिन भी?